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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचानिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २३० ॥ ॥ ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥४॥ ___याका अर्थ- केवलज्ञान केवलदर्शन क्षायिकदान लाभ भोग उपभोग वीर्य बहुरि चकारतें क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिकचारित्र ऐसै नव प्रकार क्षायिकभाव है । इहां चशब्द है सो सम्यक्त्वचा. रित्र पूर्वसूत्र में कहे तिनिका ग्रहणकै अर्थि है । बहुरि ज्ञानावरण नामा कर्मके अत्यंतक्षयतें तो केवलज्ञान क्षायिक हो है । बहुरि तैसेंही दर्शनावरण नामा कर्मके अत्यंतक्षयतें केवलदर्शन क्षायिक हो है। बहुरि दानांतराय नामा कर्मके अत्यंत क्षयतें अनंतप्राणीनिके उपकार करनेवाला क्षायिक अभयदान होय है । बहुरि लाभांतराय नामा कर्मके अत्यंत अभाव नाही है कवलाहारकी क्रिया जिनिकै ऐसे जे केवली भगवान् 'जिनिके शरीरके बलाधानके कारण अन्यमनुष्यनिके ऐसें नाही' परमसुन्दर सूक्ष्म समय समय प्रति अनंते पुद्गलके परमाणू संबंधळू प्राप्त होय है, नोकर्मका समय प्रवृद्ध ऐसा आवै है सो क्षायिकलाभ है । बहुरि भोगांतराय नामा कर्मके समस्तके अभावतें अतिशयवान् पुष्पवृष्टि आदिक अनेकविशेष लिये अनंते क्षायिक भोग हैं । बहुरि उपभोगांतरायनामा कर्मके निरवशेष प्रलय होनेते सिंहासन चामर छत्रत्रयादिक विभूति प्रगट भये, ते क्षायिक अनंत उपभोग हैं। बहुरि वीर्यांतराय कर्मके अत्यंत क्षयतें क्षायिक अनंतवीर्य प्रगट भया है । बहुरि पूर्व For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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