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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १६३ ॥ इहां कोई पूछै, जो रुतशब्दकरि ज्ञानही ग्रहण कीया, तो ऐसे वचनरूप जो द्रव्यश्रुत ताकै श्रुतपणां कैसे प्रसिद्ध है? ताका उत्तर- जो, द्रव्यश्रुतकै रुतपणां उपचारतें आवै है । जाते श्रुतशब्दका कहनांही रुतकै द्रव्यश्रुतपणा जनावै है । द्रव्यश्रुत है सो भावश्रुतज्ञानका निमितिकारण है । याहीके निमित्ततें भावश्रुतज्ञानके भेदभी अंगवाह्य अंगप्रविष्ट आदि भये हैं। जो ऐसें न होय, तो ज्ञानका इरुत ऐसा नाम काहेळू है ? ज्ञानका वाचकही स्पष्ट नाम कहते बहुरि अंग आदिके भेद कहनेते अन्यवादी च्यारि भेदरूप वेद कहै हैं। तथा षडंग वेदके कहै हैं। तथा वेदकी सहस्र शाखा कहै हैं । तिनतें न्याशपणां प्रगट होय है । ते इरुताभास हैं प्रमाण | नांही। बहुरि इरुत है सो परोक्षप्रमाण है । बहुरि मतिपूर्वक कहनैतें अवध्यादि निमितितेंभी न होय है। अर सर्वथा नित्यपणाका निषेध है। बहुरि कोई रुतपूर्वकभी इरुत हो है । तथापि सोभी मतिपूर्वकही है। जातें जाकै पूर्ववचन आवै तव वचनके श्रवणरूप मातज्ञान तो अवश्य होयही। ताकै पीछे श्रुतज्ञान होय । तातें साक्षात् तौ मतिपूर्वकही होय है। बहुरि स्मृति आदि | ज्ञानभी इस्तज्ञान नाही है। जातें स्मृति तौ मतिज्ञानहीका विशेष है । बहुरि जे मीमांसक शब्दात्मक द्रव्यदरुत वेदकू कहै हैं, ताकू ज्ञानपूर्वक नाही कहै हैं । सर्वथा For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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