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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobetirth.org ।। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १६४ ॥ artisteriti er Camerasexsarelaxerespreriasikserasacrasheredies नित्य कहे हैं । तिनिके प्रमाणते विचारिये तब बहुत विरोध आवै है । जाते वेदका उच्चार तो ज्ञान| पूर्वकही है । बहुरि कहै, जो, शब्दकी व्यक्ति ज्ञानपूर्वक है शब्द तो नित्यही है । तहां कहिये जो शदकी व्यक्ति शब्दतै भिन्न तौ नाही शब्दरूपही है ॥ बहुरि कहै हैं, जो, वचन के उच्चारकै ज्ञानपूर्व | | कपणां है । वचन तौ नवीन नाही नित्यही है । जाते याका कर्ता कह्या नाही । बडे बडे ज्ञानी भये याका कर्ता तौ काहूकुंभी यादि न भया । ताकू कहिये वेदका कर्ता वैशेषिकमतके तौ ब्रह्माके कहै है । जैमिनी कालासुरकू कहै हैं । बौद्धमती स्वाष्टकात• कहै हैं। अपनी अपनी संप्रदाय, सर्वही | कर्ता कहै हैं । तातें ऐसें कैसें कहिये? जो काहूनें कर्ता कह्या नाही । जो कहै बहुतकर्ता बताये ताते यह जानिये कि कर्ता कहना असत्यही है । ताईं कहिये बहुत कर्ता भये अकर्ता कैसै कहिये । | बहुरि अन्य आगमतें ऐसा महानपणाभी वेदकै नाही । जातें कहिये, जो, ऐसा काहूर्ते कीया जाता नाही तातें अकर्ता कहिये ॥ बहुरि कहै, जो, वेदका पढणां वेदका पढनै पूर्वकही है । जो पहले कोई पब्या होय तातें पढिये | है सो यह कहनाभी अन्यतें समान है । अपने अपने आगमकू सर्वही अपने अपने आप्त· पढावनेवाला कहे है । बहुरि कहै आगमके अर्थकू साक्षात् प्रत्यक्षकरि वक्ता होय है । तो ऐसेंही कर्ता reritsasixsxasairseriasisexiasisixeeriasibx. For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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