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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १६२ ।। __ इहां कोई फेरि पूछे है, जो यहु श्रुतज्ञान दोय भेदरूप बारह भेदरूप है सो यहु विशेष काहेरौं भया है ? तथा ताकी प्रमाणता कैसै है । ताका उत्तर यहु विशेष वक्ताके विशेषत है । वक्ता तीन प्रकार है। प्रथम तौ सर्वज्ञ है तहां तीर्थंकर तथा सामान्यकेवली बहुरि श्रुतकेवली । बहुरि तिनिके पीछले सूत्रकार टीकाकारताई भये आचार्य । तिनकू आरातीय ऐसा नाम कहिये । | तहां सर्वज्ञपरमर्षि जिनिकै छद्मस्थके चितवनमैं न आवै ऐसी अचिंत्य विभूतिका विशेष पाईये । तिनि. अर्थतें आगम कह्या । ताका प्रमाणपणां तो प्रत्यक्षज्ञानीपणांत तथा निर्दोषपणांतही है। बहुरि तिनिके निकटवर्ती जे बुद्धिके अतिशय तथा ऋद्धिकरि युक्त ऐसें गणधर इरुतकेवली तिनिकरि रचे अंगपूर्वरूप सूत्र है। ताका प्रमाणपणां सर्वज्ञकी प्रमाणताते हैही । ते सर्वज्ञके निकटवर्तीही हैं। बहुरि आरातीय जे उनके पीछलै आचार्य तिनि. इस कालदोषते थोरी आयु थोरी बुद्धि, थोरे सामर्थ्यके धारी जे शिष्य तिनिके उपकारकै अर्थि दश वैकालिकादिक रचे है । ताका प्रमाणपणां अर्थतें जो सर्वज्ञ तथा गणधरनिनें कह्या है सोही यह है ऐसे है । जैसैं क्षीरसमुद्रका जल एक घटमैं भरि ल्यावै सो क्षीरसमुद्रकाही है । तैसें यह सर्वज्ञकी परंपरातें अर्थ ले आपना बुद्धिसारू कह्या सो वहही है ऐसे जाननां ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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