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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १५२ ॥ उपज्या जो अवग्रह सो कोई कालविर्षे बहुतका होय । कोई कालवि अल्पका होय। कोई कालविर्षे बहुविधका होय । कोई कालविर्षे एकविधका होय । ऐसे हीन अधिपणातें अध्रुव अवग्रह होय है । बहुरि धारणा है जो जा पदार्थकू ग्रह्या ताकू नाही भूलनेका कारण रूप ज्ञान है। ऐसे इनि | दोऊनिका बड़ा अंतर है ॥ ऐसे अवग्रहादिक बहु आदिक पदार्थनिका होय है सो सत्यार्थ निर्वाध प्रमाण स्याद्वादमतविर्षे सिद्ध होय है । जे सर्वथा एकांतवादी हैं तिनिकै ए ज्ञानके भेद तथा पदाथके भेद संभव नाहीं॥ आगैं, जो ए अवग्रहादिक बहु आदिकके जाननेवाले हैं, तथापि बहु आदिक किसके | विशेष हैं ? ऐसा प्रश्न होते सूत्र कहै हैं- . ॥अर्थस्य ॥ १७॥ ___याका अर्थ-- ए बहु आदिक बारह हैं ते अर्थक विशेषण हैं | नेत्रादिक इंद्रियनिका विषय || | है सो तौ अर्थ है, ताके बहु आदि विशेषण हैं । इनिकरि विशिष्ट जो अर्थ कहिये वस्तु ताकै | अवग्रहादिक होय है। इहां कोई पूछे है; जे बहु आदिक हैं ते अर्थ तो हेही । फेरी सूत्र कहनेका | कहा प्रयोजन? ताका उत्तर- जो तें पूछ्या, सो तो सत्य है। परंतु इहां अन्यवादी कल्पना || For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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