SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra xextVie www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय || पान १५३ ॥ करै है तिनिका निषेधकै अर्थि ‘अर्थस्य ' ऐसा जुदा सूत्र कया है । केई वादी ऐसा मान है, कि रूप आदि गुण हैं तेही इंद्रियनिकरि स्पर्शिये हैं । तिनिकाही अवग्रह है द्रव्यका न हो है । सो यह कहना अयुक्त है । जातें रूपादिक गुणनिकी तौ मूर्ति आकार नांही जो इंद्रियनिकै स्पर्श होय । यहु मूर्ति तौ द्रव्यकीही है ताहीतें इंद्रिय भिडै है । तब फेरि वादी कहै है, जो, ऐसें है तौ लोक ऐसैं कहै है, जो, रूप में देख्या, गंध मैं संध्या, सो यहु कहनां न ठहरै । ताकूं कहिये, जो पर्यायनि प्राप्त होय है तथा पर्याय जाकूं प्राप्त होय ताकूं अर्थ कहिये है । सो अर्थ गुणपर्यायनका समुदाय द्रव्यही है । ताकै इंद्रियनितें संबंध होतें तातें अभिन्न जे रूपादिक गुण तिनिविषै ऐसा व्यवहार प्रवर्ते है, जो रूप देख्या, गंध संध्या इत्यादि । आगें हैं हैं, कहा ए अवग्रहादिक सर्वही इंद्रिय मनके होय हैं कि कछु विषयविशेष हैं ? ऐसा प्रश्न होतें सूत्र कहै हैं ॥ व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥ १८ ॥ याका अर्थ - व्यंजन कहिये अव्यक्त जो शब्दादिक ताकै अवग्रहही होय है । ईहादिक न होय हैं ऐसा नियम है ॥ तहां व्यंजन ऐसा शब्दादिका समूह अव्यक्त होय ताका अवग्रह होय । For Private and Personal Use Only BreedBro
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy