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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shn Kalassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान १५१ ॥ | होय तब होय है । तातें ये प्रधान हैं। तातें इनि• पहले कहे । बहुरि अन्य हैं ते तिसतें थोरे क्षयोपशमतें होय हैं। तातें तिनिळू पीछे कहै । इहां कोई पूछे है; बहुवि अरु बहुविधविर्षे कहा विशेष है? तहां कहिये बहुपणा तौ बहुविभी है बहुविधविभी है । परंतु एकप्रकार नानाप्रकारका विशेष है । बहुरि कोई पूछे उक्त निस्सृतविर्षे कहां विशेष है ? समस्त नीसन्या प्रकट होय ताकू निःसृत कहिये उक्तभी ऐसाही है । तहां कहिये परके उपदेशपूर्वक ग्रहण होय सो उक्त है आपहीतें ग्रहण होय सो निःसृत है यह विशेष है । बहुरि केई आचार्य क्षिप्त निःसृत ऐसा पाठ पढे हैं। तामें निःसृत पहले छहमें आवै है । ते याका ऐसे उदाहरण कहै हैं । जैसे श्रोत्रइंद्रियकरि पहली शब्दका | अवग्रह हुवा । तहां यहु मयूरका शद्ध है तथा कुरचिका शब्द है ऐसें कोई जाणे ताकू तो निःसृत | कहिये । बहुरि अनिस्सृत यातें अन्य शब्दमात्रही है ऐसा जाने है । बहुरि कोई पूछे, ध्रुवअवग्रहविर्षे | अरु धारणअवग्रहविर्षे कहा विशेष है ? तहां कहिये है- क्षयोपशमकी प्राप्तिके कालविर्षे शुद्धपरिणामके संतानकरि पाया जो क्षयोपशम तातें पहले समय जैसा अवग्रह भया तैसाही द्वितीयादिक समयनिविर्षे होय है किछु कमभी नाही होय अरु अधिकभी नाही होय है ताकू तो ध्रुवावग्रह कहिये । तथा शुद्धपरिणामका अरु संक्लेशपरिणामका मिश्रपणां मिलापते क्षयोपशम होय । तातें సుమారులకertainుల కంకులను For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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