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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १५० ॥ paparx23920PPORA%2225-OPASSESPAPESPAPApp कहिये जाका समस्त पहल शरीरादिक प्रगट नीसरे न होय सो अनिःसृत है । बहुरि अनुक्त कहिये अभिप्रायहीकरि जाका ग्रहण होय काहूके कहनेकी यामें मुख्यता नाही । बहुरि ध्रुव कहिये | निरंतर जाका जैसाका तैसा ग्रहण होवो करै ता• कहिये । बहुरि सेतर कहिये इनिके प्रतिपक्षीकरि सहित लेणै । सो बहुतका तौ प्रतिपक्षी एक तथा अल्प । बहुविधका एकविध । क्षिप्रका अक्षिप्र ।। अनिःसृतका निःसृत । अनुक्तका उक्त । ध्रुवका अध्रुव । ऐसे ये बारह भये । तिनि अवग्रहके | बारहके बारह भेद भये । बहुतका अवग्रह, अल्पका अवग्रह, बहुविधका अवग्रह, एकविधका अवग्रह, क्षिप्रका अवग्रह, अक्षिप्रका अवग्रह, अनिःसृतका अवग्रह, निःसृतका अवग्रह, अनुः | क्तका अवग्रह, उक्तका अवग्रह, ध्रुवका अवग्रह, अध्रुवका अवग्रह, ऐसें बारह भेदरूप अवग्रह | है। ऐसेंही ईहा, अवाय, धारणा इनि तीनिकभी बारह बारह भेद कीजिये । तब सर्व मिले अठतालीस ४८ होय ॥ __ बहुरि ये पांच इंद्रिय एक मन इनि छहूंनिकरि होय है। तातें छहबार अठतालीसकूँ जोडिये तब दोयसे अव्यासी भेद होय हैं । बहुरि बहु आदिक छहके नाम सूत्रमैं कहै अरु छह इनि प्रति | पक्षीकू इतर कहे, ताका प्रयोजन यह है-जो बहु आदिक तौ मतिज्ञानावरणका क्षयोपशम बहुत For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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