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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय ।। पान १३४ ॥ atsaperspeaker ఆడదలనుండలకeradenos. ఆయన श्रुतकै आदिपणां कैसै आवै ? ताका उत्तर- जो मुख्य उपचारकी कल्पनाते दोऊकै आद्यपनां कह्या है । तहां मतिज्ञान तौ मुख्य आदि हैही । बहुरि श्रुत है सो याके समीपही है तातें उपचारतें प्रथम कह्या । सूत्रवि द्विवचन है ताकी सामर्थ्यते गौणकाभी ग्रहण हुवा । याका समास ऐसें हो है । ' आद्यं च आद्यं च आये मतिश्रुते' ऐसें जाननां । ये दोऊही परोक्षप्रमाण है ऐसा संबंध करनां । इहां कोई पूछ इनिकै परोक्षपणां काहेते है ? ताका उत्तर-- ए दोऊही ज्ञान परकी अपेक्षा लीये है। मतिज्ञान तौ इंद्रियमनतें होय है । श्रुतज्ञान मनतें होय है। सो यह सूत्र आगें कहसी। यातें पर जे इंद्रिय मन तथा प्रकाश उपदेशादि जे बाह्यनिमिति तिनकी अपेक्षा सहाय लेकरि मतिश्रुतज्ञानावरणीयका क्षयोपशमसहित आत्माकै उपज है । तातें | परोक्ष कहिये । याहीते उपमानादिक प्रमाणभी ऐसेही उपजै हैं तेभी याहीमें गर्मित होय हैं । | अथवा परोक्ष शब्दका ऐसाभी अर्थ है; जो अक्ष कहिये इंद्रिय तिनतें दूरवर्ती होय ताकू परोक्ष कहिये सो श्रुतज्ञान । तथा स्मरण प्रत्यभिज्ञान तर्क स्वार्थानुमान एभी इंद्रियनितें दूरवर्ती हैं। | ऐसें ए मतिज्ञानमें गर्भित हैं। तातें एभी परोक्षही हैं । बहुरि अवग्रह ईहा अवाय धारणाज्ञान जे मतिज्ञानके भेद हैं ते इंद्रियनितें भिडिकर होय हैं । तौभी अक्ष कहिये आत्मा तातें दूरवर्ती हैं । तातें bombsxsexas For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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