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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय || पान १३५ ॥ ofile इनिळू व्यवहारकरि तौ प्रत्यक्ष कहै हैं । परंतु परमार्थतें परोक्षही है ॥ बहुरि केई कहै है, परोक्षज्ञान तौ अस्पष्ट जानना है । सो पदार्थके आलंबनरहित है । तातें मनोराज्यादिककीज्यों निरर्थक है । ते विना समझ्या कहै है । जाते अर्थका आलंबन तो प्रत्यक्ष परोक्ष दोऊनिविही है । परंतु स्पष्टता अस्पष्टताका कारण नाहीं । प्रत्यक्ष परोक्ष भेद ऐसे है जहां अन्यका अंतर पडे नांही । तथा अन्यका सहायविना विशेषनिसहित पदार्थनिकू जानें सो तौ स्पष्ट है । बहुरि वीचिमें अन्यका अंतर पडै तथा सहाय चाहै । तथा विशेषनिसहित पदार्थनिकू न जानै सो अस्पष्ट कहिये । मनोराज्यादिकवत् तो जाकू कहिये जाका कछु साक्षात् तथा परंपराय विषयही न होय ऐसें जाननां ॥ आगै इनि परोक्षनितें अन्य जे तीन ज्ञान तिनकू प्रत्यक्ष कहनेकू सूत्र कहै हैं ॥प्रत्यक्षमन्यत् ॥१२॥ ___ याका अर्थ- अन्यत् कहिये पांच ज्ञानमें तीन ते प्रत्यक्षप्रमाण है । ‘अक्ष्णोति' कहिये जानै सो अक्ष कहिये आत्मा ताहीकू आश्रयकरि उपजै अन्यका सहाय न चाहै ताकू प्रत्यक्ष कहिये। | कैसा है आत्मा? पाया है कर्मका क्षयापेशम जानें । अथवा क्षीण हुवा है कर्मका आवरण जाका | | ऐसा आत्माकै होय है सो ऐसा अवधि मनःपर्यय केवलज्ञान है। कोई कहै ऐसे तो अवधिदर्शन | నిలకంకులకుండannel For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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