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४० श्रीसामाचारी समाश्रित-श्रीसप्तपदी शास्त्रम्. कयपञ्चक्खाण किरिउ, बंदणपुव्वं तु संदिसावित्ता ।
उहोवग्गह उवहि, तो पडिलेहंति अवसे ।।८।। आयरिए वंदित्ता, वसहिं पवेएमि थंडिलाई पुणो ।
पडिलेहेमुत्ति भणित्ता, कुणति सोहिं तु वसहीए ॥१०॥ वारस बारस चिय, पासवणुच्चारकालगहणाणं । तीसं च मंडलाई, पडिलेहित्ता पमज्जति ॥९१॥
( यद्यपि उपदेशमालादौ त्रिणि कालमंडलानि कर्षि। तानि संति तथापि प्रत्यक्षतः सधैपि साधवः षट् मंडलानि कुर्वाणा दृश्यते प्रादोषिकार्द्धरात्रिकयोदक्षिणोत्तरयोवैरात्रिक प्राभातिकयो: पूर्वपश्चिमयोमडलत्रिकत्रिकरणात् । अथ पट लिखितानि संति)
॥ आ कोशनी बिना लखेल पानानी कांबीमा छ । मूल-इरियं पडिक्कमित्ता, पुव्वुत्तविहीइ कालवेलाए।
वंदित्तु चेइयाई, गोयरचरियाइ (झो) घोसंति ॥१२॥ आयरिय उवज्झाए, साहू वंदति छोभवंदणया।
एगखमासणेणं, तो देवसियं पडिकमणं ॥१३॥ ठावेमित्ति भणित्ता, उद्धठिया हत्थगहियरयहरणा। पडिवनजोगमुद्दा, भणति उस्सग्गमुत्ताई ॥९॥
॥ अथ प्रतिक्रमणविधिः-सूत्र-नियुक्ति-प्रमुखग्रंथभाषितो लिख्यते, श्रीउत्तराध्ययने-२६ अध्य० " पासवणुच्चारभूमि च, पडिलेहिज्ज जयं जई।
काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमुक्खणं ॥३८॥
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