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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५३ मुं २२१
वेला छे, तेनां नाम: - " आलोचन १, निरवलाप २, आपदि सुदृढधर्म ३, अनिश्रितोपधान ४, शिक्षा ५, अने निष्पतिकर्म ६ " इत्यादि नाम बतावेलां छे, तेमां चोथो योगसंग्रह - अनिश्रितोपधान छे, तेनो अर्थ 'आलोकना फलनी वांछा कर्या विना तपनुं करवापणुं' एम बतावेल छे. " एज प्रमाणे श्री ठाणांगसूत्रमा, श्रीसमवायांगसूत्रमां, श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्रमा अने श्रीउत्तराध्ययन सूत्रमां बतावेल छे. एक दिवसना पर्यायवाळो - आजनो दीक्षित, बाल अने अज्ञ एवो पण साधु शो वर्षनी दीक्षित अने बहुश्रुतवाळी पण साध्वीने वंदन करे नही. १६३. विरतिने धारण करनारी, गुणना स्थानभूत एवी पण साध्वी वंदाति नथी, एवो व्यवहार छे, तो अविरति देवीओने साधु केम वांदे ?, ते कहो ? १६४. देवीनी थोइ आचरणाए छे, ए कारणे ते शुद्ध नथी, आचरणाना लक्षणे करीने पण योग्य नथी, कारणके आचरणानुं लक्षण त्यां लागू पडतुं नथी. १६५. आचरणानुं लक्षण पूर्वाचा
ए आ प्रमाणे बतावेल छे:- "कोइ पण अशठ पुरुषे कोइ स्थाने जे कंड़ निर्दोष- पापरहित आचरण कर्यु होय, अने तेनुं बीजाओए निवारण कर्यु न होय, ते आचरण कहेवाय, तेवी आचरणा अमने प्रमाण छे. १” आवुं पूर्वाचार्यनुं वचन होवाथी तेमां जे जिनेश्वरे निषेधेल अने ते निषेधेलनंज विधान कर एज सावध - पापकारी छे, लक्षण विरुद्ध एवं आ आचरण अहिं केम प्रमाणभूत मानी शकाय ?
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