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श्रीसप्तपदीशाब-गुजरातीभाषानुवाद.
पण निन्दाती नथी. १५७. केटलाक त्रण थोइ कहे छ, वळी केटलाक चार थोइ कहे छ, काउस्सग्गमा देवीओनी थोइ कहे छे, ते देवीओनी थोइ पण सर्वेने प्रमाण नथी. १५८. देवीओनी स्तुति करवामां प्रयोजन आलोकनोज होय छे अने ते प्रगट देखाय छे, कारण के 'वंदण वत्तियाए' ए पाठ त्यां बोलता नथी. १५९. काउस्सग्ग अभिंतर तपमां छे, वळी नवकारनु चिन्तवन कराय छे, अने जैनसिद्धान्तोमां वंदनीय अरिहंतादि पांच छे. १६०. श्रीदशवकालिकसूत्रना नवमां अध्ययनमा ‘आ लोकना अथै तप न करवू' एम तिहां खुल्ली रीते निषेध करेल छे, ते जाणवू जोइए. १६१. वळी श्री आवश्यक सूत्रमां, श्री ठाणांग मूत्रमां, श्री समवायांग सूत्रमा, श्री प्रश्न व्याकरण मूत्रमा अने श्री उत्तराध्ययन सूत्रमा आ लोकना अर्थे तप करवान निषेध बतावेल छे. १६२. श्री दशकालिकसूत्रमा का छे के:-" निश्थी तपसमाधि चार प्रकारनी छे ते आ प्रकारे आ लोकना माटे-आ लोकना निमित्ते लब्धि आदिनी वांछाधी तप-अनसनादिरूप न कर, धम्मिलनी माफक १, तथा परलोकना माटे-जन्मान्तरना भोग निमित्ते तप न करवू, ब्रह्मदत्तनी माफक २, वळी कीर्ति, वर्ण, शब्द अने श्लाघाना माटे तप न करवू ३, परंतु कर्मनिर्जराने माटेज तप करवू, तेने छोडी बीजी कोइ पण वांछाथी तप करवू नही. ४" आ प्रकारे सिद्धान्तनां वचन होबाथी. बळी श्रीआवश्यकसूत्रमा बत्रीस योगसंग्रह बता
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