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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप। ११ wwwwwwwwwwws namrwwwwwwwwwwwwwm __ पाठक ! विचारें कि इस तरह दान के विषय को प्रवृत्ति में लाने से जैन सिद्धान्त को किसी तरह बाधा पहुँच सकेगी क्या? मेरी समझ के अनुसार इस विषय के प्रचार की हमारी जाति में बड़ी भारी आवश्यक्ता है। यही कारण है कि आज जाति से इस पवित्र विषय को रसातल में अपना निवास जमा लेने से इस पवित्र और पुण्यशाली समाज के कितने तो लोग पापी पेट की पीड़ा से पीडित होकर यम के महमान बने जा रहे हैं। कितने निराश्रय बिचारे अन्न के एक एक कण के लिये त्राहि प्राहि की दिनरात आहे भर रहे हैं । उस पर भी फिर यह भयानक दुर्भिक्ष का धड़ाधड़ जारी होना । कितने इस भयानक मस्मवन्हि की शान्ति के न होने से गलियों में पाँवो की ठोकरों से टकराते फिरते हैं। कितने विचारे सर्वतया असमर्थ हो जाने पर अनेक तरह बुरे उपायों के द्वारा अपनी जीवन यात्रा का निर्वाह करने लगते हैं। ठीक भी है "मरता क्या न करता" पाठक महोदय ! आप जानते हैं न ? यह वही जाति है जिस में पुण्य की पराकाष्ठा के उदाहरण तीर्थकर भगवान अवतार लेते हैं । यह वही जाति है जिस में भरत चक्रवर्ती सरीखे तेजस्वी पैदा हुवे थे परन्तु खेदै ! आज उसी जाति के मनुष्यों की यह अवस्था है जो दिन रात त्राहि त्राहि की पुकार में बीतती है। भगवति वसुन्धरे! ऐसे अवसर में जाति के लोगों को तो नतो अपने भाईयों की दशा की दया है और न जाति में विद्या प्रचारादि सद्गुणों की खबर है इसलिये अब तुम्ही इन दुःखियों के लिये अपना मुख विवर फाड़ दो जिससे ये बिचारे उसी में समाजायँ और सदा के लिये जगत से अपने नाम को उठाले । अथवा अय गगन मण्डल! जबतक महा देवी For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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