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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० संशयतिमिरप्रदीप। जिनमत में यद्यपि भट्टारको का सम्प्रदाय प्राचीन नहीं है और न शास्त्र विहित है परन्तु किसी कारण विशेष से चल पड़ा है। महारकों के द्वारा कितनी जगहँ जिन धर्म का अनिर्वचनीय उपकार हुआ है अर्थात् यों कहो कि जिस समय से परीक्षा प्रधानियों की प्रवलता होने लगी और दिनों दिन मुनिसमाज रसातल में पहुंचने लगा उस समय में जैनधर्म पर आई हुई आपत्तियों का सामना करके उसे इन्हीं भट्टारक लोगों ने निर्विन किया था इसलिये उनका उपकारकत्व की अपेक्षा से यथोचित सन्मान करना चाहिये । इसी से ग्रन्थकार कहते हैं कि कीर्ति के प्रधान पात्र जैन भट्टारक लोगों के लिये अपनी कीर्ति चाहने वालों को हाथी का दान देना उचित है। जिस जगहँ नदी वापिका, सरोवरादि रहित, अत्यन्त दुर्घट, विकट मार्ग हो ऐसी जगह शुद्ध जल के पीने का स्थान जिसे प्रचलित भाषा में “पो" कहते हैं बनाना चाहिये । और यथा शक्ति जितना हो सके उसी माफिक अन्नक्षेत्र (भोजनशाला) खोलनी चाहिये जिससे दीन, दुःखी, दरीद्री, पुरुषों को भोजनादि दिये जाते हो तथा शीतकाल में अच्छे पात्रों को तूल सहित वस्रो का दान देना योग्य है। जल पीने के लिये तथा भोजनादि व्यवहार के लिये कांशी वगैरह के पात्र देना चाहिये । महाव्रत के धारण करने वाले मुनियों के लिये कमण्डलु तथा पिच्छिकादि देनी योग्य है। तथा जिन मन्दिरों में पूजनादि कार्यों के लिये अनेक तरह के उपकरण, और पूजन प्रतिष्ठादि मन्त्र विधियों के कराने वाले पण्डितों के लिये भूषणादि देना चाहिये। जिन शास्त्रों में देखोगे उन सब में इसी तरह आशा मिलेगी। For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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