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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप। वसुन्धरा इसकार्य के लिये विलम्बकरती है तबतक तुम्ही अपने किसी एक बज्रखंड को गिराकर उन दीन दुःखियों का उपकार कर दो । अधिक कहाँ तक लिखे यह लेखनी भी हाथ से गिरती हुई जान पड़ती है अस्तु । फिर भी रहा नहीं जाता इसलिये और कुछ नहीं तो एक श्लोक और भी लिखे देते हैं जिससे हमारे भाईयों को जाति की अवस्था का भी कुछ ख्याल होः परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते । स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥ बस ! देखते हैं अब कौन अपना नाम जाति के उपकार सम्बन्धी कार्यों के करने में पहले लिखवाते हैं । “दशदान" का विषय अनेक शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा सिद्ध करके आप लोगों के सामने सादर समाप्त करते हैं इसका प्रचार बढाना अथवा और भी इसे रसातल में धसकाना ये दोनों घात आपके हाथ में हैं जैसा उचित समझे वैसा अनुष्ठान में लावें । कीर्ति तथा अकीर्ति को वह स्वयं संसार में प्रसिद्ध करदेगा। परन्तुःअकीर्त्या तप्यते चेतश्वेतस्तापोऽशुभास्रवः । तत्तत्प्रसादाय सदा श्रेयसे कीर्तिमजयेत् ।। अर्थात्-संसार में अकीर्ति के फेलने से चित्त को एक तरह का सन्ताप होता है और उसी सन्ताप से खोट कर्मा का आस्रव आता है । इसलिये चितको प्रसन्न करने के लिये तथा अपने कल्याण के लिये मनुष्यों को कीर्ति का सम्पादन करना चाहिये। यह नीति का मार्ग है। For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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