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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष्णुश्रीकी कथा । कुपात्रकों दान देना व्यर्थ है । जैसे साँपको दूध पिलानेसे वह विष बन जाता है, वैसे कुपात्रको दान देना दाताके लिए विषके समान है। जैसे उसर जमीनमें बोया हुआ बीज निष्फल है, उसी तरह कुपात्रको दान देना भी निष्फल है । एक वावड़ीका पानी गन्नेमें अगर पहुँच जाता है तो वह मीठा हो जाता है और यदि वही पानी नीममें पहुँच जाय तो कडुवा हो जाता है। यही दशा पात्रदान और कुपात्रदानकी है । मंत्रीने मुनिके उपदेशको बड़े ध्यानसे सुना और फिर पूछा-मुनिराज, आपको दान देनेसे मैंने जैसा फल पाया है और लोगोंने भी मुनियोंको दान देकर ऐसा फल पाया है या नहीं ? मुनिराजने कहा-दक्षिणदेशमें वेनातट नामका नगर है। उसमें सोमप्रभ राजा था । सोमप्रभा उसकी रानी थी। यह राजा ब्राह्मणोंका बड़ा भक्त था । ब्राह्मणोंके सिवाय और कोई जगत्का तारक हो ही नहीं सकता, यह उसका सिद्धान्त था। उसका यह भी निश्चय था कि गौ, ब्राह्मण, वेद, सती, सत्यवादी, दान और शील इन सातोहीसे जगतकी शोभा है। __एक वार राजाने अपने मनमें विचारा-मैंने धन तो बहुतसा उपार्जन किया, पर अब इसके द्वारा कुछ दान-पुण्य भी कर लेना चाहिए । अन्यथा इसका नाश तो होगा ही। क्योंकि दान, भोग और नाश धनकी ये तीन ही गति For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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