SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्यक्त्व-कौमुदी - 1 हैं । जो न देता है, न भोगता है उसके धनकी तीसरी गति ( नाश ) नियम से होती है । ऐसा विचार कर राजाने बहुसुवर्ण नामका यज्ञ कराया । यज्ञकी आदिमें, बीचमें और अन्तमें ब्राह्मणों को उसने खूब सुवर्णदान दिया । यज्ञशाला के पास ही एक विश्वभूति नामके ब्राह्मणका घर था । विश्वभूति भोगोपभोगं वस्तुओं में यम, नियम किया करता था और बड़ा निस्पृह था । इसकी स्त्रीका नाम सती थी । वह पतिव्रता थी । एक दिन विश्वभूति एक खेतमेंसे कुछ जाँके दाने बीन लाया। उन्हें भाड़में मुँनाकर पानी के साथ उनके उसने चार लड्डू बनाये । एकसे उसने होम किया, दूसरा अपने खानेको रक्खा, तीसरा स्त्रीको खानेके लिए दिया और चौथा लड्डू अतिथिदानके लिए रख छोड़ा | विश्वभूति प्रतिदिन ऐसा ही करने लगा । विश्वभूतिका यह निय माथा -कुछ न कुछ दान अवश्य करना चाहिए | क्योंकि मन चाहा कभी किसीको नहीं मिलता । इसलिए इस बातकी आकांक्षा करना ठीक नहीं कि जब मेरे पास बहुत धन होगा तभी मैं दान दूंगा । एक दिन विश्वभूतिके घर पर पिहिताश्रव मुनि आहार करनेके लिए आये | बड़े आनन्दसे विश्व ( १ ) जो एकवार भोगा जाता है उसे भोग कहते हैं, जैसे भोजनादिक । ( २ ) जो बार बार भोगा जाता है वह उपभोग है, जैसे वस्त्रादिक । ( ३ ) मरणपर्यन्त नियम करनेको 'यम' कहते हैं । ( ४ ) किसी निश्चित समयके लिए नियम किया जाय वह 'नियम' है । For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy