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सम्यक्त्व-कौमुदी
लोग कुपात्र हैं। दान देने योग्य नहीं । उनके विचार मलिन रहते हैं। वे आर्तध्यानी होते हैं। इसलिए वे दानके पात्र नहीं; किन्तु दानका पात्र वह है, जो स्वयं निर्दोष मार्गमें चलता हो और निरपेक्ष भावसे दूसरोंको चलाता हो, तथा जो स्वयं संसारसे पार होना जानता हो और दूसरोंको भी पार कर सकता हो। ऐसे ही गुरुओंकी सेवा करनी चाहिए और ऐसे ही सत्पात्रोंको दान देना चाहिएं। तथा बन्ध-मोक्षका स्वरूप बतलानेवाले सत्य ज्ञानकी और राग-द्वेष रहित सच्चे देवोंकी सेवा करनी चाहिए। ऐसा करनेवाला ही स्वर्ग और मोक्षका पात्र है। दान योग्य तीन प्रकारके पात्र हैं। वे उत्तमपात्र, मध्यमपात्र और जघन्यपात्र । उनमें उत्तमपात्र तो मुनि हैं, मध्यमपात्र आणुव्रती श्रावक और जघन्यपात्र अविरत-सम्यग्दृष्टि हैं। और व्रत संयुक्त होकर जो सम्यक्त्व रहित हैं, वे कुपात्र हैं,
और जो इन दोनोंसे रहित हैं वे साक्षात् नरकके पात्र हैं । इन तीनों पात्रोंको अभयदान देनेसे दाताको कहीं भय नहीं रहता । आहारदान देनसे भोगोंकी प्राप्ति होती है, औषधदानसे नीरोगता होती है तथा शास्त्रदानका दाता श्रुतकेवली होता है । लेकिन जो कुपात्रोंको दान देता है वह अपना और उस कुपात्रका भी नाश करता है । जैसा कि कहा है-राखमें होम करनेकी तरह
साक्षात् ।
ना पात्रोंको
महा भय
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