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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष्णुश्रीकी कथा । भी थी । मुनिको आहारके निमित्त आया देखकर सोमशमाने उन्हें पड़गाया और पवित्र आहार देकर वह उल्हाससे बोला-आज मैं धन्य हुआ । मैंने आज साक्षात् तीर्थकर भगवान्का दर्शन किया, पूजा की। क्योंकि इस वर्तमान कलियुगमें त्रिलोककी रक्षा करनेवाले केवली भगवान् तो हैं नहीं, किन्तु जगत्को प्रकाशित करनेवाली उनकी वाणी-उनका सदुपदेश इस भारतवर्षमें अवश्य विद्यमान है । उस वाणीके आधार इस समय रत्नत्रय धारी मुनिराज हैं । इसलिए इन मुनियोंकी और जिनवाणीकी पूजा करनेवालेने साक्षात् जिन भगवान्की ही पूजा की कहना चाहिए । इस आहारदानके प्रभावसे मंत्रीके घरमें देवोंने पंचाश्चर्य किये । इस अतिशयको देखकर मंत्री अपने मनमें विचारने लगा-अन्यमतमें जो जो दान कहे गये, जैसे-सुवर्ण, तिल, हाथी, रथ, दासी, जमीन, घर, कन्या, गौ, आदि इन सब दानोंको मैंने दिया, वह भी किसी ऐसे वैसेको नहीं, किन्तु दीक्षित, अग्निहोत्री, श्रोत्रिय, त्रिपाठी, धर्मकथक, भागवत, तपस्वी, आदिको; पर उन दानोंका फल मैंने कुछ नहीं देखा । ऐसा विचार कर मंत्री सन्ध्या समय उपवनमें मुनिराजके पास गया । विधिपूर्वक उनकी वन्दना कर उसने पूछा-भगवन्, दीक्षित आदि ब्राह्मणों को मैंने खूब दान किया, पर मुझे उसका कुछ फल न मिला । इसका क्या कारण ? मुनिराजने कहा-भाई, वे For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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