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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्यक्त्व-कौमुदी सब देखकर राजाको बड़ा वैराग्य हुआ। राजाने कहा-धर्मकी महिमा बड़ी विचित्र है, जो धर्मात्माकी देव भी सेवा करते हैं। जो धर्मात्मा है, उसको साँप हारके समान, तलवार फूलोंकी मालाके समान, विष रसायनके समान, और शत्रु मित्रके समान हो जाता है। उस पर देव प्रसन्न होकर वशमें हो जाते हैं । और आधिक क्या कहें उसके लिए आकाशसे रत्नोंकी दृष्टि तक होती है । इस प्रकार वैराग्यके बाद पद्मोदय राजाने अपने उदितोदय पुत्रको राज्य देकर जिनचन्द्र मुनिराजके पास दीक्षा लेली। इसी प्रकार सांभन्नमति मंत्रीने, जिनदत्त सेठने तथा और भी बहुतोंने दीक्षा ग्रहण की। बहुतोंने श्रावकोंके व्रत लिये और कोई कोई भद्रपरिणामी-सरल स्वभावी ही हुए। देव भी सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर स्वर्ग चला गया। यह सब कथा सुनाकर अपनी स्त्रियोंसे अहंदास कहने लगा-कि ये सब बातें मैंने प्रत्यक्ष देखी हैं और इसीसे मैं सम्यग्दृष्टि हुआ हूँ। यह सुनकर वे स्त्रियाँ बोलीं-नाथ, आपने इन बातोंको देखा है, सुना है, और अनुभव किया है, तब हम सब भी इनका श्रद्धान करती हैं, इन्हें चाहती हैं और इनमें हमारी रुचि भी है । इसी समय सबसे छोटी कुंदलता स्त्री बोली-यह सब झूठ है, इसलिए न मैं इनका श्रद्धान करती हूँ, न मैं इन्हें चाहती हूँ, और न मेरी इन बातोंमें रुचि ही है। इस प्रकार कुन्दलताकी बातको सुनकर उदितोदय राजा, For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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