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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्हदास सेठकी कथा। ५५ कर-उनका उपकार मानकर उन्हें अपना अमृततुल्य पानी पिलाते हैं। मतलब यह कि महापुरुष किये उपकारको कभी नहीं भूलते। राजाने फिर पूछा-अच्छा किसकी प्रेरणासे सेठने ऐसा किया था ? देव बोला-महापुरुषोंका परोपकार करनेका स्वभाव ही होता है। उन्हें प्रेरणाकी आवश्यकता नहीं रहती। सूर्यको अन्धकार मिटानेकी आज्ञा कौन देता है ? वृक्षोंके हाथ किसने जोड़े थे-कि तुम रास्तेमें लग जाओ, लोग तुम्हारी छायामें खड़े हुआ करेंगे। मेघोंसे कोई प्रार्थना नहीं करता कि तुम पानी बरसाओ। मतलब यह कि सज्जन पुरुषस्वभावहीसे- बिना किसीकी प्रेरणाके, परोपकारके लिए कमर कसे रहते हैं। यह सुनकर राजाने कहा-सव धाँमें जैनधर्म ही बड़ा धर्म है । इसकी प्राप्ति बड़े भारी पुण्यसे होती है । सेठ बोले-महाराज, आपने बहुत ठीक कहा । थोड़े पुण्यसे जैनधर्मकी प्राप्ति नहीं होती। प्रभावशाली जैनधर्म, सज्जनोंकी संगति, विद्वानोंका सम्पर्क, बोलनेकी चतुराई, सम्पूर्ण शास्त्रोंमें प्रवीणता, जिनेन्द्र भगवानके चरण कमलोंमें भक्ति, सच्चे गुरुओंकी सेवा, शुद्ध चारित्र और निर्मल बुद्धि, इन बातोंकी प्राप्ति थोड़े पुण्यवानोंको नहीं होती। जिनदतकी बातों से प्रसन्न होकर देवने पंचाश्चर्य किये, जिनदत्त सेठकी पूजा की, और प्रशंसा कर वह बोला-कि मैं चोर था, पर आपके प्रभावसे देव हो गया । आपने बिना ही कारण मेरा उपकार किया। आपका मैं अत्यन्त कृतज्ञ रहूँगा । यह For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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