SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्यक्त्व-कौमुदी — चढ़ जाया करती है। सेठकी इस नीतियुक्त बातको सुनकर देवने अपने राक्षसी रूपको छोड़ फिर देवरूप धारण कर लिया और सेठकी तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार किया। पीछे देव- गुरुकी वन्दना कर वह बैठ गया । यह देखकर राजाने पूछा- सुराधीश, क्या स्वर्ग में विवेक नहीं होता, जो तुमने देव गुरुको छोड़कर एक गृहस्थकी पहले वन्दना की ? इसको आचार्य अपक्रम नामका दोष कहते हैं । जनप्रचलित रीतिके विपरीत काम किया जाता है वह अपक्रम कहलाता है । जैसे भोजन के बाद नहाना और गुरुके बाद देववन्दना करना, इत्यादि । यह सुनकर देव बोला - महाराज, मैं सब जानता हूँ | पहले देवकी और पीछे गुरुकी वन्दना की जाती है और इसके बाद श्रावक से जुहार वगैरह किया जाता है । परन्तु यहाँ कारण वश मुझे ऐसा करना पड़ा है। क्योंकि ये सेठ मेरे परम गुरु हैं । राजाने पूछा- कैसे ये तुम्हारे परम गुरु हैं ? देवने तब पहलेका सब वृतान्त उसे सुनाया । उस समय वहीं पर बैठे हुए किसी आदमीने कहाअहा, यह बड़ा ही सत्पुरुष है और यही कारण है कि सत्पुरुष दुसरेके किये उपकारको कभी नहीं भूलते । देखो, नारियल के पेड़ जब छोटे होते हैं, तब लोग उन्हें थोड़ा थोड़ा पानी देते हैं। पर जब वे बड़े होते हैं और फलने लगते हैं तब उन उपकारियोंके लिए एक तो नारियलोंका बोझा अपने सिर पर उठाते हैं, और फिर उनके थाड़ेसे दिये गये पानीका स्मरण For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy