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विद्युल्लताकी कथा
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जानते तो इसमें कोई नई बात नहीं। पर मैं न तो जैनीकी लड़की हूँ और न स्वयं जैनी हूँ, तौ भी मुझे जिनधर्मके व्रतोंका प्रभाव सुनकर वैराग्य हो गया, यह सचमुच आश्चर्य की बात है महाराज ! मैं केवल श्रद्धान मात्रसे कुछ लाभ नहीं समझती और यही कारण है कि अब मैंने निश्चय कर लिया है-मैं सबेरे ही जिन-दीक्षा लूँगी । लेकिन आश्चर्य तो यह है कि इन सबने जिनधर्मके व्रतोंका माहात्म्य देखा है और सुना भी है, तो भी ये सब रहे मूर्खके मूर्ख ही । उपवास आदि करके ये शरीरको सुखाते जरूर हैं, पर संसारके भोगों में ये सदा फँसे रहते हैं - भोग-विलासों को छोड़ते नहीं हैं । मेरा तो यह सिद्धान्त है कि मनुष्यको गुण सम्पादन करनेमें प्रयत्न करना चाहिए, आडम्बरोंमें नहीं। जिन गायोंमें दूध ही नहीं है उनके गले में केवल घंटा बाँध देनेसे क्या वे बिक जायँगी ? इस प्रकार कुन्दलताकी बातें सुनकर राजाको, मंत्रीको और अईदास आदिको बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने तब उसकी प्रशंसा की, स्तुति की और उसे नमस्कार किया । इसके बाद उदितोदय राजा, सुबुद्धि मंत्री, सुवर्णखुर चोर, अर्हदास सेठ तथा और भी बहुत से लोगोंने अपना अपना पद और अपना अपना स्थावर-जंगम सम्पत्तिका अधिकार अपने अपने पुत्रोको सौंपकर गणधर मुनिराजके पास जिन-दीक्षा ग्रहण की । किसीने श्रावकों के व्रत लिये। किसी किसीने अपने परिणामोंको ही निर्मल किया । रानी यशोमती, मंत्रि-पत्नी सुप्रभा, अद्दासकी आठों स्त्रियोंने तथा और भी बहुतसी
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