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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४६ सम्यक्त्व-कौमुदी vvvvvvvvvvvvvvs दीखते हो, अबकी वार बहुत दिनोंमें दर्शन दिये-इत्यादि । जो ऐसा व्यवहार करें, उनके घर पर प्रसन्न मनसे जरूर जाना चाहिए । और जिसके घर पर वह आवे उसे उचित है कि वह मित्रके आने पर तो क्या, पर यदि शत्रु भी अपने घर पर आ जाय तो उसे वह प्रेमभरी दृष्टि से देखे, उसके साथ मधुर संभाषण करे, उसे ऊँचे आसन पर बैठावे, भोजन करावे और पान-सुपारी दे । ___ इसके बाद राजाने सेठसे कहा-सेठजी, रातमें आपने और आपकी सातों स्त्रियोंने जो-जो कथाएँ कहीं, दुष्टा कुन्दलताने उन सबको झूठ बतलाकर निन्दा की। वह बड़ी दुष्टा है और कभी यही आपकी मृत्युका कारण होगी। क्योंकि दुष्ट स्त्री, मूर्खमित्र, जबाब देनेवाला नौकर और साँपका घरमें रहना ये सब मृत्युके कारण हैं । इसलिए उसे मेरे सामने लाइए । मैं उसे दंड दूंगा । यह सुनते ही कुन्दलताने राजाके सामने आ कहा-लीजिए महाराज, यह है वह दुष्टा ! इन सबने जो कुछ कहा और इनका जैसा जिन व्रत पर निश्चय है, मैं उसका श्रद्धान नहीं करती, मैं उसे नहीं चाहती और न मेरी उसमें रुचि होती है । राजाने पूछा-तू क्यों उनका श्रद्धान नहीं करती ? हम सबने रूपखुर चोरको सूली पर चढ़ते देखा है । इस बातको तु झूठी कैसे बतलाती है ? कुन्दलता बोली-महाराज, ये सब तो जैन-कुलमें ही पैदा हुए हैं और बालकपनसे ही इनको जैनधर्मका संसर्ग रहा है, इसलिए ये यदि जैनधर्मको छोड़कर दूसरे धर्मको नहीं For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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