SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्युल्लताकी कथा। यह कथा कहकर विद्युल्लता अहंदाससे बोली-नाथ, मैंने यह सब वृत्तान्त प्रत्यक्ष देखा है, इसी कारण मुझे दृढ़ सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हुई। अईहासने विद्युल्लताकी प्रशंसा कर कहा—प्रिये, मै भी तुम्हारे सम्यक्त्वका श्रद्धान करता हूँ और उसे चाहता हूँ । अर्हदासकी और और स्त्रियोंने भी उसकी हाँमें हाँ मिलाकर वैसा ही कह विद्युल्लताकी प्रशंसा की। पर कुन्दलताने पहले सरीखी ही दृढ़तासे. कहा-यह सब झूठ है, आपने और मेरी इन बहिनोंने जो सम्यक्त्व ग्रहण किया है, मैं उसका श्रद्धान नहीं करती, न मैं उसे चाहती हूँ और न मेरी उसमें रुचि ही है । कुन्दलताकी यह बात सुनकर उदितोदय राजा, सुबुद्धि मंत्री और सुवणेखुर चोरने अपने अपने मनमें कहा-क्या किया जाय दुर्जनका स्वभाव ही ऐसा होता है। यह विचार कर वे तीनों अपने अपने घर चले गये । सबेरा हुआ । राजाने शौच, मुख-मार्जन कर सूर्यको अर्थ दिया, नमस्कार किया और प्रातःकालकी सब क्रियाएँ समाप्त की। इसके बाद कुछ आदमियोंको साथ लिए राजा और मंत्री अहहास सेठके घर पर आये । सेठने उनका बड़ा आव-आदर किया । सो ठीक ही है, क्योंकि नीतिकार कहते है-जब अपने घर कोई प्रेमी आवे तो उससे ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि-आइए, बैठिए, यह आसन है, आपके दर्शनसे मैं बड़ा प्रसन्न हुआ, काहिए क्या हाल है, बड़े दुबलेसे For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy