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सम्यक्त्व- कौमुदी -
बड़ा क्रोध आया । उसने उन मल्लाहों से कहा- तुम लोग बड़े ही नीच हो । जो ठीक किराया है, उससे ज्यादा एक फूटी कौड़ी भी मैं तुमको न दूँगा । घोड़ोंकी तो बात दूर रहे। तब मल्लाहोंने कहा - तो हम अपने जहाजमें बैठाकर तुम्हें उस पार भी न पहुँचा सकेंगे। यह देखकर कमळश्रीने कहाप्यारे, इस झमेलेमें आप क्यों पड़े हो ? चलिए, जलगामी घोड़े पर सवार हो समुद्र पार उतरें और अपने घर चलें । और इस आकाशगामी घोड़ेकी लगाम पकड़ लीजिए, सो यह आकाश में उड़ता चला जायगा । समुद्रदत्तने ऐसा ही किया। वह थोड़ी ही देर में अपने घर पहुँच गया ।
एक दिन समुद्रदत्त राजा से मिलने गया । उसने उस समय अपने अपने आकाशगामी घोड़ेको राजाकी भेंट किया । राजाने प्रसन्न हो उसको आधा राज्य दिया और अपनी अनंगसेना नामकी राजकुमारीका उसके साथ व्याह भी कर दिया । समुद्रदत्त अब बड़े सुखसे रहने लगा, दान-पूजा आदि पुण्य कर्म करने लगा और मुनियों को आहार देने लगा ।
सुदंड राजाने वह घोड़ा अपने परम मित्र सुरदेव सेठको रक्षाके लिए सौंप दिया । नीतिकार कहते हैं- इसमें आश्चर्य नहीं कि इतने बड़े राजाकी सुरदेवसे मित्रता हो । क्योंकि सूरदेव बड़ा सज्जन था । इसलिए राजाका उस पर बड़ा प्रेम था। राजा इस बातको जानता था कि सच्चा मित्र पाप से बचाता
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