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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ सम्यक्त्व-कौमुदी निदान कुछ समयमें समुद्रदत्तने कमलश्रीको अपने वशमें कर लिया। वह भी उसे हर तरहसे चाहने लगी। नीतिकार कहते है-जब वनमें भील लोग गा-गाकर बड़े तेज भागनेवाले हरिणों तकको वशमें कर लेते हैं तब मनुष्य मनुष्यको अपनी गान-कलासे वशमें करले तो आश्चर्य क्या ? सच है गुणों द्वारा कौन कार्यसिद्ध नहीं होता ? बालिकाएँ खेलके समय अच्छे अच्छे फलादिक खानेको देनेसे, जवान स्त्रियाँ अच्छे गहने और कपड़ोंसे, मध्यवया स्त्री ( मध्यमा नायिका )सुदृढ़ संभोग कलासे और वृद्ध स्त्रियाँ गौरवके साथ उनसे मीठी मीठी बातें करनेसे वशमें होती हैं । यही कारण था कि कमलश्री गाने और फलादिकके देनसे समुद्रदत्तके वश हो गई। कमलश्रीके मनमें अब यही भावना उठने लगी कि मेरा पति यही हो । नीतिकारने ठीक कहा है-कि आगको ईंधनसे संतोष नहीं होता, नदियोंसे समुद्रकी तृप्ति नहीं होती, प्राणियोंको खाते खाते यमराज नहीं अघाता और स्त्रियोंको चाहे जितने पुरुष मिलते जायँ पर उन्हें चैन नहीं पड़ता-हर समय वे दूसरोंके लिए ही तड़फती रहती हैं। समुद्रदत्तको रहते पूरे तीन वर्ष हो गये । एक दिन वह कमलश्रीसे बोला-प्यारी, तुम्हारी कृपासे मेरे दिन बड़े सुखसे बीते। अब मेरी नौकरीके दिन पूरे हो गये । सो, मैं अपने देश जाऊँगा। मैंने जो तुमसे कभी बुरा-भला कहा हो-मेरी जबानसे भूलमें कुछ बेजा निकल गया हो, तो तुम मुझे क्षमा करना। For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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