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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ सम्यक्त्व-कौमुदी है, पर बन्धुओंके बीच धनहीन होकर रहना अच्छा नहीं । ऐसा विचार कर पद्मश्रीको साथ ले बुद्धसिंह परदेशको चल दिया। शहर बाहर होते ही इन्हें दो व्यापारी मिले । वे दोनों पद्मश्रीका रूप देखकर उस पर लुभा गये । दोनोंने उसके लेउड़नेकी ठानी। पर साथ ही उन्होंने मनमें विचारा कि हम दोनोंको तो यह किसी तरह मिल नहीं सकती । इसलिए एकको मार डालना अच्छा है । दूसरेने भी ऐसा ही विचारा। निदान दोनोंने विष मिलाकर भोजन बनाया और एकने एकको खिलाया। वे दोनों उस विष मिले भोजनको खाकर अचेत हो गये। उन दोनोंका थोड़ासा भोजन बच गया था। उसे पद्म श्रीके मना करने पर भी बुद्धसिंहने खालिया । वह भी उसी समय अचेत हो गया । पद्मश्री अपने पतिकी यह दशा देखकर बड़ी व्याकुल हुई । रो-रोकर बड़ी मुश्किलसे उसने सारी रात बिताई । सबेरे ही किसीने जाकर बुद्धदाससे कह दिया कि तुम्हारा लड़का बुद्धसिंह शहरके बाहर मरा पड़ा है । यह सुनकर बुद्धदासको बड़ा दुःख हुआ । उसी समय दौड़ा हुआ वह लड़केके पास आया । और उसकी वह दशा देखकर पद्मश्रीसे उसने कहा-अरी डाकिन, तूने ही मेरे लड़केको और इन बेचारे दोनों व्यापारियोकों खाया है ! मुझे नहीं मालूम था कि तू ऐसी पिशाचिनी होगी, नहीं तो तो क्यों मैं इसे तेरे साथ आने देता । अब तेरी भी कुशल इसीमें है कि या तो तू मेरे लडकेको जिलादे, नहीं तो तुझे भी For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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