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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्मताकी कथा | कोलालहको सुनकर पद्मश्रीने वहाँ आकर उन साधुओंसे कहा- भला, आप लोग तो ज्ञानी हैं, त्रिकाल ज्ञाता हैं तब अपने ज्ञान द्वारा क्यों नहीं पता लगा लेते ? साधुओंने कहा - अरी, हम ऐसे ज्ञानी नहीं हैं । पद्मश्रीने तब फिर कहा- आप लोग तो गजब करते हैं ! अरे, जब अपने पेटमें रखे हुए जूतों को ही आप नहीं जान सकते, तब आपने यह कैसे जान लिया कि मेरे पिता मरकर वनमें मृग हुए हैं ? साधुओंने कहा - तो क्या वे जूते हम लोगों के पेटमें हैं ? पद्मश्री बोली - वेशक, इसमें भी कोई संदेह है ? तब पद्मश्रीने सबको कै कराकर उन जूतों के छोटे छोटे टुकड़ों को दिखा दिया । यह देखकर त्रिकालज्ञानी साधु बड़े शर्मिन्दा हुए । उन्होंने गुस्सा होकर बुद्धदाससे कहा- पापी बुद्धदास, तेरे उपदेश से ही तेरी बहू पद्मश्रीने न करने योग्य काम भी कर डाला | अपने गुरुओंका ऐसा अपमान देखकर बुद्धदासने सब गहना, कपड़ा लत्ता और धन-माल छीन कर लड़के और बहूको घरसे निकाल दिया । इस समय बुद्धसिंहसे पद्मश्रीने कहानाथ, चलिए मेरी मां के पास किसी तरहकी कमी नहीं है । यह सुन बुद्धसिंह बोला- प्रिये, भिक्षा माँग खाऊँगा, पर ऐसी दशामें किसी सम्बन्धीके यहाँ न जाऊँगा । नीतिकारने कहा है- सिंह और व्याघ्रोंसे भरे हुए वनमें रहना, पेड़ोंके फूलपत्ते खाकर गुजारा करना, घासकी शय्या पर सोना और वृक्षोंकी छाल पहर-ओड़कर जंगलहीमें रहना तो कहीं अच्छा For Private And Personal Use Only १११
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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