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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नागश्रीकी कथा | १०३ इतनेही में भगदत्तके किसी परिचारकने आकर उसे मुंडिकाका वृत्तान्त कह सुनाया । जाकर भगदत्तने भी जब इस वृत्तान्तको अपनी आँखोंसे देखा तो उसका सब गर्व चूर चूर हो गया। वह तब बड़े विनयसे मुंडिका के पैरोंमें पड़कर कहने लगा- बहिन, मैंने यह सब अज्ञानसे किया । मुझे क्षमा करो ! इस प्रकार उससे क्षमा माँगकर उसने जितारिको अभय देकर बुलाया और उससे भी क्षमा माँगी । इस घटनासे भगदत्तके चित्तमें बड़ा वैराग्य हुआ। वह कहने लगाजिनधर्महीसे जीवोंका हित हो सकता है । संसार-समु कर्मरूपी वनको भस्म करनेको जिनधर्म ही अनिके समान है । यही सब जीवोंको सहायक है। इस प्रकार विचारकर भगदत्त और जितारिने अपने अपने पुत्रोंको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण करली । इन्हींके साथ मुंडिकाने भी दीक्षा ग्रहण की। इनके सिवा और बहुत से लोगों को भी धर्म लाभ हुआ । इस कथाको कहकर नागश्रीने अर्हद्दाससे कहा - नाथ, यह वृत्तान्त मैंने प्रत्यक्ष देखा है, इसीसे मेरी मति धर्ममें दृढ़ होकर मुझे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई । अर्हदासने कहा- प्रिये, तुमने कहा वह सत्य है । मैं इसका श्रद्धान करता हूँ और इसमें रुचि करता हूँ । अर्हदासकी अन्य अन्य स्त्रियोंने भी ऐसा ही कहा । पर कुंदलताने पहलेकी तरह अब भी वही कहा कि यह सब झूठ है । मैं इस पर विश्वास नहीं करती । कुन्दताके इस आग्रहको सुनकर राजा और मंत्रीने सोचा For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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