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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ सम्यक्त्व-कौमुदी - बलवानको न करना चाहिए | क्योंकि संभव है भागनेवाला अपने मरनेका निश्चय कर पीछा करनेवाले पर वार करदे और उससे कोई भारी अनर्थ हो जाय । यह सुनकर भगदत्त रह गया। इधर मुंडिकाको जब यह जान पड़ा कि मेरे पिता युद्धमें हार गये तब उसे यह भी सन्देह हुआ कि जिसके लिए यह सब युद्धकाण्ड हुआ, उस इच्छाको भगदत्त अब अवश्य पूरी करेगा - वह मुझसे बलात्कार अपना ब्याह करेगा और मैं उसे पसन्द नहीं करती । तब मुझे अपने सतीत्वधर्म रक्षा के लिए कोई उपाय करना नितान्त ही आवश्यक है । मुंडिकाने कई उपाय सोचे, पर उनमें उसे सफलता न जान पड़ने से अगत्या वह जिनभगवान्‌का हृदयमें ध्यान कर और कुछ त्याग व्रत ले पंच नमस्कार मंत्र का उच्चारण करती हुई जाकर कुए में गिर गई । उसके सम्यक्त्वके प्रभाव से जल स्थल हो गया - कुएका पानी सूख गया । उसके ऊपर रत्नमयी एक सुन्दर महल बन गया । उसके बीचों बीच सजे हुए सिंहासन पर बैठी हुई मुंडिका सती सीताकी तरह मालूम पड़ने लगी । देवोंने तब पंचाश्चर्य किये । इधर भगदत्त दरवाजा तोड़कर सेना सहित शहरमें घुसगया और उसे लूटने लगा । शहरको लूट-काटकर वह जितारिके महलकी ओर बढ़ा। पर नगरदेवताने उसे महलमें न घुसने देकर बाहर ही कील दिया । For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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