SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नागश्रीकी कथा । १०१ A चकितसा रह गया । पर्वत काँपने लगे, पृथिवी घूमने लगी, विषेले सर्प विष उगलने लगे, और एक बड़ी भारी हलचलसी मच गई। दोनों तरफकी सेनाएँ भिड़ीं। मार-काट होने लगी । अन्तमें भगदत्तकी सेनाने जितारिकी सेनाको तितरवितर कर दिया-उसे हरा दिया । यह देख मंत्रीने जितारिसे कहा-महाराज, देखिए अपनी सेनाके पैर उखड़ गये । अब युद्धक्षेत्रमें ठहरना ठीक नहीं है । कूचका नकारा बजवाइए । जितारिने तब मंत्रीसे कहा-तुम इतने डरते क्यों हो? अपनेको तो दोनों ही तरहसे लाभ है। यदि जीत गये तो विजयलक्ष्मी मिलेगी और यदि युद्धमें मारे गये तो स्वर्गमें देवांगना मिलेगी। यह शरीर तो क्षण-विनाशीक है ही, तब रणमें या मरणमें चिंता किस बातकी ? देखो, बृहस्पति जिसका गुरु था, वज्र हथियार था, देवोंकी जिसके पास सेना थी, स्वर्ग किला था, विष्णुकी जिस पर कृपा थी, ऐरावत जिसका हाथी था, इतना बल रहने पर भी इन्द्रको शत्रुसे हारना पड़ा। इसलिए अब तो भाग्य ही शरण है । पुरुषार्थसे कुछ लाभ नहीं । ऐसे पुरुषार्थको भी धिक्कार है । मंत्रीने उसका निश्चय सुन कहा--महाराज, आप कहते वह ठीक है, पर व्यर्थ मरनेहीसे क्या लाभ ? मनुष्य यदि जीता रहे तो वह सैकड़ों लाभ उठा सकता है । इस समय जितारिको युद्ध में कुछ ढीला देखकर भगदत्तने उसका पीछा किया। जितारि भागने लगा। मंत्रीने तब भगदत्तको मनाकर कहा कि भागते हुएका पीछा. For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy