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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ रणवाल कहा 1 संतुष्ट हम प्रतिपल परम आनन्द का अनुभव करते हैं। धन के संग्रह से हमारा क्या प्रयोजन ? - इस प्रकार कहते दूए उसने वह तृण गृहस्वामी को दे दिया और वहां से चल पड़ा । उसके अद्वितीय सत्यनिष्ठ कथन को सुनकर मैं बड़ा प्रभावित हुआ। मैंने सोचा - 'ओह । यह ब्राह्मण कितना अलोभी, नीति कुशल और धर्म में दृढ़ है । यह महात्मा है । यदि मैं अपना धन इसे सौंप दूँ तो उसके अपहरण की शंका उठती ही नहीं ।' ऐसा सोचकर वहां से धन लेकर चल पड़ा । पहले के धुर्त ने मुझे रोका, किन्तु मैं वहां नहीं ठहरा । उस भिक्षु के पीछे-पीछे चलते हुए मैंने उसके घर में प्रवेश किया। उसने मेरे साथ बहुत मधुर व्यवहार किया। मैंने भी अपना धन दिखलाकर उसे अपने पास रखने के लिए आग्रह किया परन्तु उस धूर्त ने स्पष्ट रूप से अपनी अनिच्छा दिखाई। उसी समय एक योगी भिक्षा के लिए आया और शंख बजाने लगा । उसे देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ । उसने सभक्ति उसे वंदना की । 'धन्य है मेरा भाग्य' - ऐसा कहते हुए उसने योगी की झोली परमान्न (खीर) से भर दी और दूसरे बहुत सारे सुमधुर भोजन भी दिए। भारी झोली लेकर योगी गुरु के समीप आया। नवीन सरस भिक्षा को देखकर वृद्ध गुरु को आश्चर्य हुआ। आज कौन ऐसा नया दानी नगर में उत्पन्न हुआ है जिसने ऐसे रसों से भरपूर भोजन भिक्षा में दिया है ? गुरु ने कहा - अरे । ― भोजन लाता है। ऐसा मनोश भोजन कभी कोई नया धनी भद्र पुरुष बैठा था ? इसमें तू प्रतिदिन रूखा-सूखा, बचा खुचा तुझे प्राप्त नहीं हुआ। क्या वहां कोई रहस्य अवश्य है । शिष्य ने कहा- हां । गुरु ने कहा- शिष्य ! झोली लेकर वहां जाने की शीघ्रता कर । वहां जाकर मैं जो कुछ कहूँ उसे कहकर अतुल सफलता प्राप्त कर । 'जैसी आपकी आज्ञा' ऐसा करता हुआ शिष्य झोली लेकर शीघ्र ही वहां आया और सखेद कहने लगा- 'भाई ! आज मैंने गुरु का बिना कारण ही उपालंभ पा लिया । जब मैं भिक्षा लेकर गुरु के पास गया, तब वे तुम्हारे द्वारा दी गई सरस भिक्षा को देखकर विरक्त गुरु मेरे ऊपर लाल हो गए और कुपित वाणी से उपालंभ देते हुए बोले – 'मूर्ख ! क्या साधु के लिए ऐसी भिक्षा योग्य है ? केवल तृण को खाता हुआ बकरा कामवासना से बहुत पराजित हो जाता है, तब यह भोजन करता हुआ योगी ब्रह्मचारी कैसे रह सकता है ? रस का लोलुपी और योगी भी ऐसा कभी नहीं हो सकता । अनेक प्रकार के रस और व्यंजनों से युक्त भोजन से हमें क्या प्रयोजन है ? हमें तो रूखा- सुखा भोजन करना चाहिए । एकान्त वन में रहना चाहिए और तीर्थयात्रा करनी For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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