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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौथा उच्छ्वास दुकानदार की नैया मानो समुद्र के बीच डूब गई। पीछे से उसने बहुत पुकारा किन्तु मैंने कुछ भी स्वीकार नहीं किया । 'यह धूर्त शिरोमणि है' ऐसा स्पष्ट अनुभव करता हुआ उसके (लड़की के) घर पहुंचा। उसने भी सम्मान-पूर्वक कुशल प्रश्न पूछे और सानुनय अपनी जिज्ञासा प्रगट करते हुए कहा-'क्या मेरे योग्य कोई सेवा है ?' मैंने भी धन दिखाते हुए अपना अभिप्राय उसे बताया। यद्यपि बहुमूल्यवान द्रव्य को देखकर उसे पाने के लिए उसका अन्तःकरण बहुत आतुर हो उठा, फिर भी उपरितन भाव से वह पूर्व व्यापारी की तरह निपुणता पूर्वक लेने से इन्कार करता रहा । जैसे-जैसे वह प्रतिषेध करता रहा वैसे-वैसे ही मैं धन को वहीं रखने की भरसक चेष्टा करता रहा । उसी बीच एक ब्राह्मण भिक्षाटन करता--'स्वस्ति कल्याणम्'इस प्रकार बोलता हुआ उसके मकान में आया । गृहस्वामी ने अपनी पत्नी से कहा -- ब्राह्मण को एक सेर चावल दो'-भार्या ने सम्मान सहित विप्र को दान दिया। ___ दान लेकर चलते हुए ब्राह्मण ने सोचा–आश्चर्य ! यह नई बात कैसे हुई जहाँ मुट्ठी भर आटा भी दुर्लभ है, वहाँ ऐसी दानशीलता ! कृपणता से कर्कश यह पत्नी झूठे हाथ से कुत्ते को भी नहीं दुत्कारती, पीसती हुई भी धान्य के कणों को चबाती रहती है, वहाँ चावलों का दान ? कोई ठगी का जाल है---ऐसा अनुसंधान करते हुए उसने पीछे मुड़कर देखा । उसे मैं दिखाई दिया। उसने सोचा---'इस प्रवासी को ठगने के लिए यह दानशीलता दिखाई है । मैं भी अवसर का लाभ क्यों न उठा लू'--यह निश्चय कर उसने अपनी पगड़ी में एक छोटा सा तृण डाला और तत्क्षण वहाँ से मुड़ गया । उदास मुख से वह कहने लगा 'ओह । महान् अपराध, अभूतपूर्व दोष, अक्षम्य त्रुटि हो गई। भ्राता ? मैं अत्यन्त दुःखी हूँ । हाय ! जब मैं दान लेने के लिए झुका तब छ पर का एक तृण आपकी बिना आज्ञा से मेरी पगड़ी में लग गया। कुछ आगे जाने के बाद मेरा हाथ उस तृण पर पड़ा । उस समय मेरा हृदय कांप उठा । मैंने सोचा-हा ! हा! मैंने अज्ञान अवस्था में यह क्या अनर्थ कर डाला ? आज तक मैंने किसी का बिना दिया हुआ नहीं लिया। आज प्रतिज्ञा का भंग हो गया ।' यह तृण तुच्छ है, क्या यह भी चोरी है ? छोटा अपराध कुछ भी नहीं है ।'- ऐसा सोचकर यदि मैं उसकी उपेक्षा करूँ तो मेरी वृत्ति अर्नगल हो जाए और तब मैं दूसरों के सोने के अपहरण को भी दोष-रहित मानने लग जाऊँ । ओह ! ब्राह्मण का सारा क्रिया-कलाप विलुप्त हो जाए । हम भिक्षुकों का केवल भिक्षा लेना ही अधिकार है । भिक्षा से For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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