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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौथा उच्छ्वास चाहिए । तपस्या से विहीन कोई भी साधना सफल नहीं होती ऐसा कहकर वह खीर आदि पदार्थों को वहीं छोड़कर चला गया। यह सुनकर मैं स्तंभित, विस्मित और उसके गुण से रंजित हो गया। मैंने सोचा- 'ऐसा वैराग्य ! विचित्र अनासक्ति, अद्भुत विरक्ति ! मुझे अपना द्रव्य निःसंशय इसे ही सौंपना चाहिए । तत्काल उसके पीछे-पीछे चलते हुए मैंने नगर के बहिर्भाग में स्थित मठ में महन्तजी के दर्शन किए। वैराग्यमय वार्तालाप चला । मैंने अपने धरोहर रखने के लिए उनसे प्रार्थना की। 'हमारा इनसे क्या प्रयोजन'-ऐसा कहकर उसने निषेध किया । अन्त में बहुत आग्रह करने पर उसने मेरी प्रार्थना स्वीकार की। 'यहां कोई भय नहीं है'-इस प्रकार मैं निश्चिन्त होकर समुद्र में आगे चला। पीछे से धन के महान् लोभी महन्त ने सभी शिष्यों को अलग कर दिया। मठ के मुख्य द्वार को भी बदल दिया। सभी वक्षों को काट डाला। अपनी एक आंख फोड़ डाली। सारी लीला ही बदल दी। ___कुछ समय के बाद जब मैं अपनी धरोहर लेने की इच्छा से यहाँ आया तब कुछ भी परिचित नहीं मिला। महन्त ने मेरे साथ बात भी नहीं की। उसने कहा-'तू भूल गया है, यहाँ स्वप्न में भी ऐसी घटना घटित नहीं हुई।' इस प्रकार वह अपनी यथार्थ घटना सुनाता हुआ रत्नपाल से कहने लगा कुमार ! उसके बाद से मैं यहां-वहां घूमता हूं, परन्तु कोई भी मेरी बात नहीं सुनता। 'अस्तु' मेरा कहने का यही तात्पर्य है कि तुम्हें यहां बहुत दक्षता से बर्ताव करना चाहिए, अन्यथा तुम्हारा कुशल नहीं है-ऐसा मानना चाहिए । संक्षेप में ऐसा निवेदन कर-'मुझें कोई देख न ले'-ऐसा सोचकर वह तत्काल वहां से चला गया। ___रत्नपाल ने स्थविर के अनुभवी शब्दों को याद किया । हाय ! विधि का विधान अज्ञात होता है । मैं अनिच्छित स्थान पर आ गया । 'अब क्या करना चाहिए ?' यह सोचकर कुमार चिन्तित हो उठा। For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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