SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रणवाल कहाँ सेठ मन्मन अनेक प्रकार की क्रीड़ा करने लगा । ऐसे-वैसे बोलता हुआ वह उसको खिलाने लगा । अपने घर के कार्य को विस्मृत कर सेठ उस बच्चे को अपने कंधों पर बिठाकर इधर-उधर घुमाने लगा और उसकी देखभाल के लिए धायों की भी उचित व्यवस्था करदी । वह बालक गिरिकन्दरा में लीन चम्पक वृक्ष की भांति मन्मन के घर में सुखपूर्वक बढ़ने लगा । खेद ! विधि के कार्य विचित्र होते हैं । इधर भानुमती अपने बच्चे को दूसरे के हाथ में सौंप कर रस निकाले हुए ईख की तरह तथा पत्र, पुष्प, और फल से हीन वृक्षावली की तरह चेतनाहोन हो गई । अहो ! प्रातः काल में भी सर्वत्र घना अन्धकार छा गया। उसके नीरोग शरीर में भी कोई असह्य और अतुल वेदना उत्पन्न हो गई । वह पागल की तरह सोचने लगी---" क्या मैं जागती हुई भी प्रत्यक्ष रूप से स्वप्न देख रही हूँ ? मेरे सारे योग ( मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) प्रकट और तीव्र हैं, फिर भी क्या मैं मृत हूँ ? अहो ! मैंने ऐसी कौनसी बहुमूल्य वस्तु गवादी है, जिसके बिना सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं की भांति दीख रहा है । किसने मेरे हृदय के टुकड़े को चुरा लिया है कि जिसके बिना सारा विस्मृत हो गया है। मां की गोद से वंचित वह बेचारा बालक क्या कर रहा होगा ? हाय ! विधाता ! स्तनपान करने वाले बालक को माता से अलग क्यों कर डाला ? पराए घर में रहे हुए उस मन्द भाग्य बालक की कैसी परिपालना होगी ?" इस प्रकार अनेक विकल्पों का जाल बुनती हुई भानुमती कभी मूच्छित होती है, कभी म्लान होती है और कभी ग्लान हो जाती है। उसके अनवरत बहने वाले आंसुओं से सारा भूतल कीचड़मय हो गया । पागल की तरह वह इधर उधर घूमने लगी । क्षण मात्र के लिए भी उसे सुख का अनुभव नहीं हो रहा था । सेठ जिनदत्त की भी वही दशा हो गई, किन्तु भाग्य की दावाग्नि में जले व्यक्ति की पुकार कौन सुनता है ? यह उस समय जिनदत्त की विचित्र अवस्था थी । वह अपनी भार्या के साथ सोच रहा था कि - 'अब क्या करना चाहिए ? ' द्रव्य के विनिमय से पुत्र को परगृह में रखा है - इस जनापवाद का उसे भय था, इसलिए वह अपना मुँह दिखाने में भी लज्जा का अनुभव करने लगा। अन्त में दोनों ने यह निश्चय किया कि नगर के लोगो को यह वृत्तान्त ज्ञात हो इससे पूर्व ही हमें गुप्त रूप से गृह नगर और देश का परित्याग कर देना चाहिए ।' उत्त्रस्त मन वाली भानुमती ने सारे गृहभाण्डों को व्यवस्थित किया और आवश्यक For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy