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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूसरा उच्छ्वास १६ I वस्तुओं की एक छोटी पोटली बांधली । अनेक दिनों तक खाने में काम आने वाली ''खड़ी' आदि कुछ पाथेय बनाया । ' यह दूसरे जान न लें' इसलिए उसने अपने घर के कपाट बंद करके सारा कार्य किया । पुत्र के वियोग से विधुर बहुत लम्बा दिन भी घर के काम की अधिकता से ज्यों-त्यों बीत गया । मन्द प्रकाश वाली संध्या का आगमन हुआ । पर्यंत कालिमा वाली लालिमा ने अल्प समय के लिए अपना अधर राग दिखाया । 'अवसर का लाभ उठाना चाहिए' मानो इस सिद्धान्त को प्रकट करता हुआ अंधकार बढ़ने लगा । हमसे क्या होना है, मानो ऐसा विचार करते हुए बिन्दु के आकार वाले तारे आकाश में मन्द किरणों से चमकने लगे । 'रात्रि माता की तरह शान्तिप्रद होती है' ऐसा मानकर बच्चों की आँखें निद्रामुद्रित होने लगी । एक दूसरे के प्रति संसक्त चक्रवाक के युगल वियुक्त हो गए। चोरों की मलिन भावना अपने लक्ष्य के प्रति साक्षात् जागरूक हो उठीं। अपनी पत्नियों से संतुष्ट मानस वाले सद्गृहस्थ अपने घरों में प्रविष्ट हुए । 'ऐसी रात में पलायन करने का अनुकूल अवसर है ।' ऐसा जानकर जिनदत्त ने धीरे से अपनी बूढ़ी पड़ोसिन को बुला भेजा । वह कृतज्ञ, दक्ष, अपनी दादी के समान, विश्वस्त थी । जिनदत्त ने उसे सारी बात ज्यों की त्यों कह सुनाई । भविष्य में किए जाने वाले सभी कार्यों से उसे परिचित कराया और अपने घर की सुरक्षा का सारा भार उसे सौंपते हुए घर के तालों की चाबियों का गुच्छा भी उसे दे दिया । अन्त में उसके चरणों में गिरकर सौहार्द पूर्ण आशीष ली और माथे पर पाथेय की पोटली रखकर अपनी भार्या के साथ जिनदत्त कोई हमें देख न लें' - इस प्रकार शंकित होकर धीरे-धीरे पैर रखता हुआ, रत्नपाल का बारबार स्मरण करता हुआ घने अंधकार में विलीन हो गया । बेचारा अल्पज्ञ मनुष्य क्या क्या कल्पनाएं करता है, किन्तु भाग्य कुछ अदृष्ट घटनाएं घटित कर देता है । पवन से प्रेरित बादलों के समूह की भांति भाग्य से प्रेरित प्राणियों की आशाएं नष्ट हो जाती हैं। हाय ! चर्म-चक्षु के धारक मनुष्य के लिए भाग्य की परिणति को जानना दुष्कर होता है । देखिये, जिनदत्त का प्रत्यक्ष विधि पराभव ! आकाश-सी विशाल किस-किस आशा से पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना की थी, वहाँ कैसा अनभिलषणीय समय आ पड़ा। जिसके सामने अनेक भृत्य हाथ जोड़े "क्या आज्ञा है ?" ऐसा बोलते हुए हाजिर रहते थे, वह जिनदत्त आज अपने मस्तक पर पोटली रखे, अपने अस्तित्व को छुपाते हुए, मित्र और सहोदरों की सहायता से रहित, पुत्र 'के वियोग से संक्षुब्ध, वाहनों से वंचित अपनी भार्या के साथ अकेला ही चला जा For Private And Personal Use Only
SR No.020603
Book TitleRayanwal Kaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
PublisherBhagwatprasad Ranchoddas
Publication Year1971
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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