SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १६ . न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम [ उद्देश न्यायकन्दली यस्य वस्तुनो यो भावस्तत् तस्य तत्त्वम् । साधारणो धर्मः साधर्म्यम्, असाधारणो धर्मो वैधर्म्यम् । साधर्म्यवैधर्म्य एव तत्त्वं साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्वम् , तस्य ज्ञानं निःश्रेयसहेतुः । विषयसम्भोगजं सुखं तावत् क्षणिकविनाशि दुःखबहुलं स्वर्गादिपदप्राप्यमपि सप्रक्षयं सातिशयञ्च । तथा च कस्यचित् स्वर्गमात्रमपरस्य स्वर्गराज्यम् । अतस्तदपि सततं प्रच्युतिशङ्कया परसमुत्कर्षोपतापाच्च दु:खाकान्तं न निश्चितं श्रेयः । आत्यन्तिको दु:खनिवृत्तिरसह्यसंवेदननिखिलदुःखोपरमरूपत्वादपरावृत्तेश्च निश्चितं श्रेयः। तस्य कारणं द्रव्यादिस्वरूपज्ञानम् । एतेन तत्प्रयुक्तं यदुक्तं मण्डनेन-"विशेषगुणनिवृत्तिलक्षणा मुक्तिरुच्छेदपक्षान्न जिस वस्तु का जो 'भाव' है वही उसका 'तत्त्व' है। (अनेक वस्तुओं में रहनेवाले एक) साधारण धर्म को 'साधर्म्य' कहते हैं । (प्रत्येक पदार्थ में ही रहनेवाले) असाधारण धम्म को 'वैधयं कहते हैं । साधम्य और वैधर्म्य रूप जो तत्त्व है. वही इस 'साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्व' शब्द का अर्थ है। इसी का तत्त्वज्ञान निःश्रेयस का कारण है। सांसारिक विषयों के उपभोग से होनेवाला सुख क्षणमात्र में विनष्ट हो सकता है और अपनी अपेक्षा बहुत अधिक दुःखों से घिरा हुआ है । स्वर्गपद से व्यवहृत होनेवाला सुख भी विनाशशील है और न्यूनाधिक भावयुक्त है। जैसे किसी को स्वर्ग मिलता है और किसी को उसका अधिपत्य (स्वाराज्य)। अतः वह (स्वर्गरूप) सुख भी स्वर्ग से गिरने की आशङ्का से उत्पन्न दुःख और दूसरे के उत्कर्ष से उत्पन्न क्षोभ से आक्रमण होने के कारण निश्चित कल्याण नहीं है । दुःखों की अत्यन्तिक निवृत्तिरूप मोक्ष असह्य होनेवाले दुःखों के अत्यन्त विनाशरूप होने के कारण और इसलिए भी कि एक बार उस अवस्था की प्राप्ति हो जानेपर फिर दुख की अवस्था नहीं लौटती है, परम कल्याणमय है, अतः जीवों को परम अभीष्ट है । उसका कारण द्रव्यादि पदार्थों का तत्त्वज्ञान है। इसी से आचार्य मण्डन की यह उक्ति भी खण्डित हो जाती है कि- “(आत्मा के) सभी विशेष गुणों का नाश ही मोक्ष है, यह पक्ष 'ज्ञानस्वरूप आत्मा का अत्यन्त उच्छेद ही मुक्ति है" बौद्धों के इस उच्छेद अत: धर्मज्ञान में मुक्तिजनकता कहने से ही म्मिसहित धर्मज्ञान में मुक्तिजनकता कथित हो जाती है । तस्मात् कोई असामञ्जस्य नहीं है। १. अभिप्राय यह है कि भाष्य में स्थित “साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्वज्ञानम्" इस वाक्य का "साधर्म्यञ्च वैधर्म्यञ्च साधर्म्यवैधयें, ते एव तत्वं साधर्म्यवैधर्म्यतत्त्वम्' इस द्वन्द्वान्त कर्मधारय के बाद 'तस्य ज्ञानम्' यह षष्ठी समास है। किन्तु उक्त द्वन्द्वान्त पद का 'तत्त्वम्' इस पद के साथ षष्ठीतत्पुरुष समास नहीं है, क्योंकि इससे साधर्म्यवैधर्म्यरूप तत्त्व के ज्ञान में मुक्तिजनकता सिद्ध न होकर उस साधर्म्यवैधर्म्य में रहनेवाले धर्मों के ज्ञान में ही मुक्तिजनकता कही जायगी, किन्तु यह असङ्गत है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy