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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् द्रव्यगुणकम्मंसामान्यविशेषसमवायानां षष्णां पदार्थानां साधयेवैधर्म्यतत्त्वज्ञानं निःश्रेयसहेतुः । (१) द्रव्य, ( २ ) गुण, ( ३ ) कर्म, ( ४ ) सामान्य, ( ५ ) विशेष, और ( ६ ) समवाय, इन छ: पदार्थों के साधर्म्य और वैधर्म्य का तत्त्वज्ञान 'निःश्रेयस' अर्थात् अपवर्ग का कारण है। एवं उक्त तत्त्वज्ञान का जनक यह ग्रन्थ भी परम्परा से अपवर्ग का कारण है। न्यायकन्दली वाक्यार्थो गम्यत एव। अथवा तत्र श्रुतप्रयुज्यमानाऽस्तिभवतिक्रियानिबन्धनो भविष्यतीति यत्किञ्चिदेतत् ।। प्रकृतमनुसरामः । अत्र पवार्थधर्मज्ञानादेव पदार्थानामपि सङ्ग्रहो लभ्यते, स्वातन्त्र्येण धर्माणां सङ्ग्रहाभावात् । ननु पदार्थधर्माणां सङ्ग्रहपरो ग्रन्थो महोदयहेतुरिति नोपपद्यते, शब्दानामर्थप्रतिपादनमन्तरेण कार्यान्तराभावादित्याशय पदार्थधर्मप्रतीतिहेतोः सङ्ग्रहस्य पारम्पर्येण महोदयहेतुत्वं प्रतिपादयन्नाह-द्रव्यगुणेत्यादि। इत्यादि वाक्यों से भी अर्थ-बोध अवश्य होता है। (अगर यह आग्रह मान भी लिया जाय कि क्रिया से ही पदों में परस्पराकाङ्क्षा होती है, तब भो) अस्ति,भवति इत्यादि क्रियाओं का अध्याहार कर लिया जा सकता है । तस्मात् वेदान्त वाक्यों में अप्रामाण्य की कोई भी शङ्का नहीं है। अब हम फिर प्रकृत विषय का अनुसन्धान करते हैं । यहाँ 'पदार्थधर्म के ज्ञान से पदार्थों के भी 'संग्रह' अर्थात् ज्ञान का लाभ होता है। पदार्थधर्म के यथार्थज्ञान का कारण ग्रन्थ (शब्दसमूह) महोदय अर्थात् अपवर्ग का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द में अपने अर्थो के प्रतिपादन को छोड़कर दूसरे कामों के करने का सामर्थ्य नहीं है । यह शङ्का मन में रखकर ( अपवर्ग के कारण ) पदार्थधर्म-विषयक यथार्थ-ज्ञान के सम्पादक ग्रन्थ में (अपवर्ग की साक्षात्कारणता सम्भव न होने पर भी) परम्परया (अपवर्ग की) कारणता का प्रतिपादन करते हुए 'द्रव्यगुण' इत्यादि भाष्य को कहते हैं। १. अभिप्राय यह है कि इस पुस्तक का नाम 'पदार्थधर्मसंग्रह" है। 'संग्रह' शब्द का अर्थ सम्यक् ज्ञान या यथार्थज्ञान है। "प्रवक्ष्यते महोदयः" इत्यादि वाक्य से पदार्थधर्म के यथार्थज्ञान में 'महोदय' या अपवर्ग की कारणता कही गई है। आगे सापयंवैधयंयुक्त पदार्थ-ज्ञाम में ही महोदय को कारणता कही गई है। अत: दोनों उक्तियों में सामञ्जस्य नहीं होता। इसी को मिटाने के लिए इस अभिप्राय से उपर्युक्त शब्द कहना पड़ा कि धर्म का ज्ञान धम्मिज्ञान के बिना असम्भव है। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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