SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 859
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७८४ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम् यथा द्रव्यगुणकर्मणां सदात्मकस्य भावस्य नान्यः सत्तायोगोऽस्ति । वृत्यात्मकस्य समवायस्य नान्या एवमविभागिनो वृत्तिरस्ति, तस्मात् स्वात्मवृत्तिः । अत एवातीन्द्रियः सत्ता अपने सम्बन्धियों में रहता है । जैसे कि द्रव्य गुण और कर्म में सत्ता जाति के लिए दूसरे सत्तासम्बन्ध की आवश्यकता नहीं होती है, इसी प्रकार एक ही स्वरूप के एवं सम्बन्धाभिन्न समवाय की सत्ता के लिए दूसरे सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं होती है । अतः यह स्वरूप सम्बन्ध से ही रहता है । यतः प्रत्यक्ष होनेवाले पदार्थो में सत्तादि सामान्यों की तरह कोई अलग सम्बन्ध नहीं है, अतः समवाय का प्रत्यक्ष नहीं होता है । न्यायकन्दली न तावदसम्बद्धस्य सम्बन्धकत्वं युक्तम्, अतिप्रसङ्गात् । सम्बन्धरचास्य न संयोगरूपः सम्भवति, तस्य द्रव्याश्रितत्वात् । नापि समवायः, एकत्वात् । न च संयोगसमवायाभ्यां वृत्त्यन्तरमस्ति । तत् कथमस्य वृत्तिरित्यत आहकया पुनर्वृत्त्या द्रव्यादिषु समवायो वर्तत इति । वृत्त्यभावान्न वर्तत इत्यभिप्रायः । समाधत्ते नेति । वृत्त्यभावान्न वर्तत इत्येतन्न, तादात्म्याद् वृत्त्यात्मकत्वात् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal [ समवायनिरूपण 'कया पुनर्वृत्त्या' इत्यादि ग्रन्थ से आक्षेप करते हैं कि क्या समवाय अपने सम्बन्धियों में किसी दूसरे सम्बन्ध से न रह कर ही अपने दोनों सम्बन्धियों को परस्पर सम्बद्ध करता है ? अथवा अपने सम्बन्धियों में किसी अन्य सम्बन्ध से रहकर ही ( संयोग की तरह ) अपने सम्बन्धियों को सम्बद्ध करता है ? इन दोनों में 'सम्बन्धियों में न रहकर ही उन्हें परस्पर सम्बद्ध करता है' यह पहिला पक्ष अति प्रसङ्ग के कारण ( अर्थात् पट और तन्तु की तरह कपास और सम्बद्ध हों इस आपत्ति के कारण असङ्गत है ) है । समवाय का अपने सम्बन्धियों में रहने के लिए सकता, क्योंकि संयोग द्रव्यों में ही हो सकता है । नहीं है, क्योंकि समवाय एक ही है । सम्बन्ध को ( सम्बन्धियों से भिन्न होना चाहिए, अतः एक ही समवाय सम्बन्ध और उसका प्रतियोगी दोनों नहीं हो सकता ) संयोग और समवाय को छोड़कर दूसरी कोई 'वृत्ति' ( सम्बन्ध ) नहीं है, तो फिर कौन सो 'वृत्ति' से समवाय की सत्ता द्रव्यादि में रहती है ? अर्थात् समवाय को रहने के लिए जब किसी सम्बन्ध को सम्भावना नहीं है तो समचाय है ही नहीं । पट एवं तन्तु और पट भी परस्पर क्योंकि सर्वत्र समवाय की असत्ता समान संयोग सम्बन्ध उपयोगी नहीं हो समवाय भी उसके लिए पर्याप्त (पूर्व पक्षी से) 'पर' अर्थात् सिद्धान्ती उक्त आक्षेप का समाधान 'न' इत्यादि सन्दर्भ से करते हैं । अर्थात् द्रव्यादि में समवाय के रहने के लिए किसी सम्बन्ध की सम्भावना
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy