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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् पुनर्वृच्या द्रव्यादिषु समवायो वर्तते ? लभ्यत इति । कया न संयोगः सम्भवति, तस्य गुणत्वेन द्रव्याश्रितत्वात् । नापि समवायः, तस्यैकत्वात् । न चान्या वृत्तिरस्तीति ? न तादात्म्यात् । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७८३ होता है, उसी प्रकार समवाय में भी समझना चाहिए। (प्र०) समवाय कौन से सम्बन्ध से अपने अनुयोगी में रहता है ? अपने आश्रय के साथ संयोग सम्बन्ध तो उसका हो नहीं सकता क्योंकि संयोग गुण है, अतः संयोग केवल द्रव्यों में ही रह सकता है । समवाय सम्बन्ध से भी समवाय नहीं रह सकता, क्योंकि समवाय एक है. संयोग और समवाय को छोड़कर कोई तीसरा सम्बन्ध नहीं है ( अतः समवाय है ही नहीं ) | ( उ० ) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि समवाय स्वरूप ( तादात्म्य ) सम्बन्ध से ही न्यायकन्दली युक्तो हि सम्बन्धिविनाशे संयोगस्य विनाशः, तदुत्पादे सम्बन्धिनोः समवायिकारणत्वात् । समवायस्य तु सम्बन्धिनौ न कारणम्, सम्बन्धिमात्रत्वात् । यथा न कारणं तथोपपादितम् । तस्मादेतस्य सम्बन्धिविनाशेऽप्यविनाशः, सत्तावदाश्रयान्तरेपि प्रत्यभिज्ञेयमानत्वात् । किमसम्बद्ध एव समवायः सम्बन्धिनौ सम्बन्धयति ? For Private And Personal सम्बद्धो वा ? यह समवाय नित्य है ? अथवा अनित्य ? इस संशय के उपस्थित होने पर ( उसकी निवृत्ति के लिए ) 'सम्बन्धनित्यत्वेऽपि ' इत्यादि सन्दर्भ लिखा गया है । अर्थात् जिस प्रकार संयोग के सम्बन्धियों ( अनुयोगी और प्रतियोगी ) के अनित्य होने पर संयोग भी अनित्य होता है, उसी प्रकार सम्बन्धियों के अनित्य होने पर समवाय अनित्य नहीं होता | क्योंकि भाव ( सत्ता जाति ) की तरह समवाय का भी कोई उत्पादक कारण नहीं है । 'यथा' इत्यादि सन्दर्भ से उक्त भाष्य सन्दर्भ की ( स्वपदवर्णन रूप ) व्याख्या की गयी है । यह ठीक है कि सम्बन्धियों के विनाश से संयोग का विनाश हो, क्योंकि वे ही संयोग के समवायिकारण हैं । समवाय के अनुयोगी और प्रतियोगी तो उसके केवल सम्बन्धी हैं, उसके कारण नहीं ( अतः उनके विनाश से समवाय का विनाश संभव नहीं है ) । ये समवाय के कारण क्यों नहीं हैं इस प्रश्न का उत्तर दे चुके हैं। अतः समवाय के सम्बन्धियों के विनष्ट होने पर भी समवाय का विनाश नहीं होता, क्योंकि जिस प्रकार सत्ता जाति के आश्रय के विनष्ट होने पर भी दूसरे आश्रयों में प्रतीति के कारण सत्ता जाति को अविनाशी मानना पड़ता है, उसी प्रकार समवाय के एक या दोनों आश्रयों के विनष्ट होने पर भी दूसरे सम्बन्धियों में होती है. अतः उसे भी अविनाशी मानना आवश्यक है । समवाय को प्रतीति
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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