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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७८५ प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् दीनामिव प्रत्यक्षेषु वृत्यभावात, स्वात्मगतसंवेदनाभावाच्च । तस्मादिह बुद्धयनुमेयः समवाय इति । इति प्रशस्तपादभाष्ये समवायपदार्थः समाप्तः॥ इसके प्रत्यक्ष न होने का यह हेतु भी है कि (संयोगादि की तरह अनुयोगी और प्रतियोगी से भिन्न रूप में इसका) भान नहीं होता है। तस्मात् 'यह यहीं है। इस कथित प्रतीति से समवाय का अनुमान ही होता है। प्रशस्तपादभाष्य में समवाय पदार्थ का निरूपण समाप्त हुआ। न्यायकन्दली स्वत एवायं वृत्तिरिति । कृतको हि संयोगस्तस्य वृत्त्यात्मकस्यापि वृत्त्यन्तरमस्ति, कारणसमवायस्य कार्यलक्षणत्वात् । समवायस्य वृत्त्यन्तरं नास्ति । तस्मादस्य स्वात्मना स्वरूपेणैव वृत्तिन वृत्त्यन्तरेणेत्यर्थः । अत एवातीन्द्रियः सत्ता. दीनामिव प्रत्यक्षेषु वृत्त्यभावात् । यथा सत्तादीनां प्रत्यक्षेष्वर्थेषु वत्तिरस्ति तेन ते संयुक्तसमवायादिन्द्रियेषु गृह्यन्ते, नैवं समवायस्य वृत्तिसम्भवः । अतोऽतीन्द्रियोऽयम्, संयोगसमवायापेक्षस्यैवेन्द्रियस्य भावग्रहणसामोपलम्भात् । नहीं है, इससे समवाय द्रव्यादि में नहीं है सो बात नहीं। क्योंकि समवाय में 'सम्बन्ध' का 'तादात्म्य' है, अर्थात् वह स्वयं 'वृत्त्यात्मक' है, फलतः समवाय स्वयं ही सम्बन्ध स्वरूप है। संयोग यतः उत्पत्तिशील वस्तु है, अतः सम्बन्धात्मक होने पर भी उसके रहने के लिए दूसरा सम्बन्ध आवश्यक है । क्योंकि उपादान में समवाय ही कार्य का स्वरूप है, अतः समवायिकारण रूप सम्बन्धियों में संयोग का समवाय रूप दूसरा सम्बन्ध न मानें तो संयोग समवाय सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाला कार्य ही नहीं रह जाएगा। समवाय तो नित्य है, उसके लिए दूसरे सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं है । अतः समवाय स्वात्मक सम्बन्ध से ही फलतः स्वरूपसम्बन्ध से ही अपने सम्बन्धियों में रहता है, किसी दूसरे सम्बन्ध से नहीं। 'अत एवातीन्द्रियः सतादीनामिव प्रत्यक्षेषु वृत्त्यभावात्' अर्थात् प्रत्यक्ष दीखनेवाले घटादि विषयों के साथ सत्तादि पदार्थों का ( स्वभिन्न समवाय नाम की) वृत्ति ( सम्बन्ध ) है, अतः संयुक्तसमवाय सन्निकर्ष से उनका प्रत्यक्ष होता है। इस प्रकार समवाय का कोई भी स्वभिन्न एवं प्रत्यक्षप्रयोजक सम्बन्ध अपने सम्बन्धियों के साथ नहीं है, अत। समवाय अतीन्द्रिय है। क्योंकि संयोग और समवाय इन दोनों में से किसी एक की सहायता से ही इन्द्रियों में किसी भावपदार्थ को ग्रहण करने का सामर्थ्य है। (प्र.) यदि समवाय का इन्द्रियों से ६६ For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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