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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७५१ प्रकरणम् ) भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली सरति ? हतं तीदमनवस्थया । अथेदं स्वसामर्थ्यात् प्रवर्तते ? तदा यथा यद् वस्तु यद् दर्शयति तथैव तत्, न त्वेतदन्यत्रादर्शनेन प्रत्याख्यानमर्हति सर्वभावप्रत्याख्यानप्रसङ्गात् । तस्मात् सामान्य व्यक्त्युत्पादविनाशयोरुत्पादविनाशवत्वाद् व्यक्त्यन्तरावस्थाने चावस्थानान्नित्यमनित्यं च, न पुननित्यमेव ।। एवं प्राप्तेऽभिधीयते-कि जातिव्यक्त्योरविलक्षणमाकारं गृह्णाति तत्प्रतीतिः ? उत तयोरभेदं गृह्णाति ? आहोस्वित् परस्पर विलक्षणावाकारौ ? आये कल्पे तावदेकमेव वस्तु स्यात्, नोभयोरेकात्मकत्वम्, अविलक्षणाकारबुद्धिवेद्यत्वस्याभेदलक्षणत्वात् । द्वितीये तु कल्पे व्याहतिरेव, विलक्षणाकारसंवित्तिरेव हि भेदसंवित्तिः। तस्याः सम्भवे सति तयोरभेदप्रतिपत्तिरेव नास्ति, कथं भिन्नयोरभेदो व्यवस्थाप्यते ? कथं तहि तादात्म्यप्रतीतिः ? न कथञ्चिदिति बदामः । यदि तावदेक आकारोऽनुभूयते, एकस्यैव वस्तुनः प्रतीतिरियं नोभयोः । अथ द्वावाकारावनुभूयेते तदास्याः प्रतीतेरसम्भव एव । यत् पुनगौ रित्यय कहें कि ( उ० ) एक ही वस्तु के भेद और अभेद इन दोनों की अवस्थित एक हो वस्तु में कहीं नहीं देखी जाती है। अत: उक्त भेदाभेद पक्ष अयुक्त है, (प्र.) तो इसके उत्तर के लिए यह पूछना है कि क्या अनुमान की तरह प्रत्यक्ष प्रमाण को भी अपने विषय की सिद्धि के लिए उसका अन्यत्र देखा जाना आवश्यक है ? यदि ऐसी बात माने तो अनवस्थादोष के कारण प्रत्यक्ष प्रमाण का ही लोप हो जाएगा। यदि प्रत्यक्ष अन्यत्र दर्शन की अपेक्षा न करके ) केवल अपने बल से ही अपने विषय को दिखाने के लिए प्रवृत्त होता है, तो फिर यही मानना पड़ेगा कि अपने जिस वस्तु को वह जिस रूप में दिखलाता है, वह वस्तु उसी रूप का है। इस वस्तुस्थिति का केवल इस हेतु से निरादर नहीं किया जा सकता कि 'अन्यत्र इस प्रकार से देखा नहीं जाता'। प्रत्यक्ष का यदि यह स्वभाव न मानें तो संसार से सभी वस्तुओं की सत्ता ही उठ जाएगी। तस्मात् यही कहना पड़ेगा कि सामान्य यत: अपने आश्रय रूप व्यक्तियों के उत्पन्न होने पर ही उत्पन्न होता है, और उनके विनष्ट होने पर विनष्ट भी होता है, अतः 'अनित्य' है। एवं उस व्यक्ति के नाश के बाद भी उसी जाति की दूसरी व्यक्ति में रहता है, अतः वह नित्य' भी है। तस्मात् सामान्य नित्य एवं अनित्य दोनों ही है, केवल नित्य ही नहीं है। ( उ०) ऐसी स्थिति में हम (ताकिक ) लोग पूछते हैं कि (१) 'अयं गौः' यह प्रतीति जाति और व्यक्ति दोनों को ए ही आकार में ग्रहण करती है । (२) अथवा दोनों के अभेद का ग्रहण करती है ? (३) अथवा जाति और व्यक्ति दोनों को परस्पर विभिन्न आकारों में ग्रहण करती है ? इनमें यदि पहिला पक्ष मानें तो For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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