________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
७५०
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [सामान्यनिरूपण
न्यायकन्दली न च तस्य स एव स्वभावः स एव च सम्बन्धीत्युपपद्यते, निःस्वभावस्य सम्बन्धाभावात् । तस्माज्जातिव्यक्त्योः परस्परात्मतैव तत्त्वम् । एवं सति भेदाभेदवादोऽपि सिद्धयति । यथा हि शाबलेयो गौरित्येवं प्रतीयते तथा बाहुलेयोऽपि । न चास्ति कस्यचिद् बाधः शाबलेय एव गौर्न बाहुलेय इति । किन्तु सर्वेषामेकमतित्वमेव 'स गौरयमपि गौरिति'। तत्र प्रतीतिबलेन शाबलेयात्मकस्य गोत्वस्य बाहुलेयात्मकत्वे सिद्ध शाबलेयाद भेदोऽपि सिद्धयति । अयमेव हि सामान्यस्य पूर्वपिण्डाद् भेदो यत् पिण्डान्तरात्मकत्वम् । इदमेव च सामान्यरूपत्वं यदुभयात्मकत्वम् । भेदाभेदावेकस्य विरुद्धाविति चेत् ? न, युक्तिज्ञस्य भवतः साम्प्रतमेतदभिधातुम् । तद्विरुद्धं यत्र बुद्धिविपर्येति । यत्तु सर्वदा प्रमाणेन तथैव प्रतीयते, तत्र विरोधाभिधानमेव विरुद्धम् ।
अन्यत्रैवं न दृष्टमिति चेत् ? किं वै प्रत्यक्षमपि अनुमानमिव दृष्टमनुका स्वरूप भी ऐसा ही मानना पड़ेगा जो अश्वादि व्यक्तियों में न रहे। अतः इन दोनों स्वरूपों का उपयुक्त निर्णय तभी हो पायेगा, जब कि गोव्यक्ति और गोत्व जाति दोनों में तादात्म्य मान लें। अर्थात् ऐसा मान लें कि गोत्वाभिन्नत्व ही गोव्यक्ति का स्वभाव है, एवं गोव्यक्तियों से अभिन्न रहना ही गोत्व जाति का स्वभाव है। ऐसा तो हो नहीं सकता कि वही उसका स्वभाव भी हो, और वही उसका सम्बन्धी भी हो क्योंकि किसी स्वभाव से युक्त वस्तु में ही किसी का सम्बन्ध होता है। बिना स्वभाव के वस्तु में किसी का सम्बन्ध सम्भव नहीं है। तस्मात् 'जाति व्यक्तिस्वरूप है, और व्यक्ति भी जातिस्वरूप ही है' यही सिद्धान्त ठीक है । ऐसा मान लेने पर जाति और व्यक्ति में परस्पर भेद और अभेद दोनों की ही सिद्धि (प्रतीतियों के भेद से ) हो सकती है। जिस प्रकार शाबलेय गो में 'यह गो है' इस आकार की प्रतीति होती है, उसी प्रकार बाहुलेय नामके गो में भी यह गो है' इस प्रकार की प्रतीति होती है। ऐसी कोई बाधबुद्धि भी नहीं है कि शाबलेय ही गो है, बाहुलेय नहीं किन्तु यही सबों का अनुभव है कि 'शाबलेय' भी गो है, एवं 'बाहुलेय' भी गो है। इस स्थिति में शाबलेय गो के स्वरूप गोत्व में बाहुलेय गो की स्वरूपता जिस प्रकार सिद्ध होती है, उसी प्रकार गोत्व में शाबलेय गो के भेद की भी सिद्धि होती है। ( गोत्व रूप ) सामान्य में पूर्व पिण्ड ( शाबलेय गो रूप पिण्ड ) का भेद इसी लिए है कि सामान्य (गोत्व ) पिण्डान्तर (बाहुलेय गोरूप दूसरा पिण्ड ) स्वरूप है। सामान्यरूपता इस लिए है कि वह उभयात्मक है। ( उ०) एक ही वस्तु में एक ही वस्तु का भेद और अभेद दोनों का रहना परस्पर विरुद्ध' है ? (प्र०) युक्तियों से अभिज्ञ आप जैसे व्यक्ति का ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि विरुद्ध' वही कहलाता है जिसमें कि बुद्धि का विपर्यास हो । जो बराबर प्रमाण के द्वारा उसी प्रकार का प्रतात होता है, उसको विरुद्ध कहना ही 'विरुद्ध' है। यदि यह
For Private And Personal