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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७५२ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [सामान्यनिरूपण न्यायकन्दली मविभागेन संवेदनं तत् समवायसामर्थ्यात् । संयोगे हि द्वयोः संसर्गावभासः, समवायस्य पुनरेष महिमा यदत्र सम्बन्धिनावयःपिण्डवह्निवत् पिण्डीभूतावेव प्रतीयेते जातिरेव न च व्यक्तेः स्वरूपम् । तेन सत्यपि भेदे बदरादिवत् कुण्डस्य जातितो व्यक्तेः स्वरूपं पृथग न निष्कृष्यते । परस्परपरिहारेण तूपलम्भोऽस्त्येव, दूरे गोत्वाग्रहणेऽपि पिण्डस्य ग्रहणात् । पूर्वपिण्डाग्रहणेऽपि पिण्डान्तरे गोत्वग्रहणात् । तस्माद् व्यक्तेरत्यन्तं भिन्नमेव सामान्यमिति ताकिकाणां प्रक्रिया। द्रव्यादिषु वृत्तिनियमात् प्रत्ययभेदाच्च परस्परतश्चान्यत्वम्, द्रव्यत्वाफिर जाति या व्यक्ति इन दोनों में से किसी एक का मानना ही सम्भव होगा दूसरे का नहीं, जाति और व्यक्ति एतदुभयात्मक किसी वस्तु की कल्पना सम्भव नहीं होगी, क्योंकि अभिन्नता का यही लक्षण है कि जो अविलक्षण आक.र की बुद्धि के द्वारा ज्ञात हो । यदि दूसरा पक्ष मानें तो परस्पर विरोध ही उपस्थित होगा। क्योंकि किन्हीं दो वस्तुओं का परस्पर विभिन्न आकारों से गृहीत होना ही उन दोनों के भेद का ज्ञान है । भेद का यह ज्ञान यदि सम्भव है, तो फिर उन दोनों में तादात्म्य की प्रतीति कैसी ? अतः हम लोग कहते हैं कि जाति और व्यक्ति इन दोनों के तादात्म्य की प्रतीति किसी भी प्रकार से नहीं होती, क्योंकि यदि एक ही आकार का अनुभव होता है तो फिर वह अनुभव एक ही वस्तु की प्रतीति होगी, दो वस्तुओं की नहीं। यदि दो आकारों का अनुभव होता है, तो फिर उस एक आकार की प्रतीति की सम्भावना ही मिट जाती है। 'गौरयम्' इत्यादि प्रतीतियों में जो गोत्वजाति और गोव्यक्ति विना अलग हुए से प्रतीत होते हैं, वह तो दोनों के समवाय का सामर्थ्य है। संयोग की प्रतीति में उसके प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों के सम्बन्धियों का भान होता है । समवाय की ही यह विशेष महत्ता है कि इसमें उसके दोनों सम्बन्धी (प्रतियोगी और अनुयोगी) परस्पर एक होकर ही प्रतीत होते हैं। जैसे कि वह्नि और अयःपिण्ड वस्तुतः पृथक् होते हुए भी एक होकर ही ज्ञान में भासित होते हैं। सुतराम् (व्यक्ति सम्बद्ध ) जाति की ही प्रतीति होती है, केवल व्यक्ति के स्वरूप की नहीं। अतः जाति और व्यक्ति में वस्तुतः भेद रहते हुए भी जैसे कि ( संयोग युक्त ) कुण्ड और बेर को अलग कर दिखलाया जा सकता है उस प्रकार जाति से व्यक्ति के स्वरूप को अलग नहीं किया जा सकता। कुछ स्थानों में जाति और व्यक्ति की प्रतीति एक दूसरे को छोड़कर भी होती है। जैसे दूर में गोपिण्ड ( व्यक्ति ) की प्रतीति तो होती है, (किन्तु यह गो हैं' इस प्रकार से ) गोत्व की प्रतीति वहाँ नहीं होती । एवं पूर्वपिण्ड का ग्रहण न रहने पर भी दूसरे पिण्ड में गोत्व का ग्रहण होता है। तस्मात् ताकिकों की रीति के अनुसार जाति और व्यक्ति अत्यन्त भिन्न हैं । (किसी भी प्रकार वास्तव में अभिन्न नहीं है)। ___ द्रव्यत्वादि सामान्य सतः नियमित रूप से द्रव्यादि तत्तत् आश्रयों में ही रहते हैं, एवं प्रत्येक सामान्य की प्रतीति भिन्न भिन्न आकार की होती है, अतः समझते हैं कि द्रव्यत्व गुणत्वादि सामान्य परस्पर भिन्न हैं। अभिप्राय यह है कि द्रव्यत्वादि सामान्यों For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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