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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६६८ www.kobatirth.org न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् प्रशस्तपादभाष्यम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ कर्मनिरूपण - स्वपराश्रयसमवेतकार्यारम्भकत्वं प्रतिनियतजातियो कारणत्वमसमवायिकारणत्वं समानजातीयानारम्भकत्वं गित्वम् । दिग्विशिष्टकार्यारम्भकत्वं च विशेषः । द्रव्यानारम्भकत्वं च समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले ( संयोग और विभाग ) वस्तुओं को उत्पन्न करना, (११) अपने समानजातीय वस्तु को उत्पन्न न करना ( १२ ) ( प्रत्येक क्रिया में ) नियमित उत्क्षेपणत्वादि जातियों का सम्बन्ध ( १३ ) एवं दिग्विशिष्ट कार्य का कर्तृत्व ये तेरह उत्क्षेपणादि पाँचों कर्मो के असाधारण धर्म हैं । न्यायकन्दली वेशः, तदैकस्मादेव तद्देशद्रव्यसंयोगविभागयोरुपपत्तेः द्वितीयकल्पनावैयर्थ्यम् । एवमेकं कर्म नानेकत्र वर्त्तते, एकस्य चलने तस्मात् कर्मणोऽन्यस्य चलनानुपलम्भात् । क्षणिकत्वमाशुतरविनाशित्वम् । मूर्तद्रव्यवृत्तित्वम् अवच्छिन्नपरिमाणद्रव्यवृत्तित्वम् । अगुणवत्त्वं गुणवत्त्वरहितत्वम् । गुरुत्वद्रवत्वप्रयत्नसंयोगजत्वम् । स्वकार्येति । स्वकार्येण संयोगेन विनाश्यत्वं न विभागविनाश्यत्वम्, उत्तरसंयोगाभावप्रसङ्गात् । संयोगविभागेति । यथा वेगारम्भे नोदनाभिघातविशेषापेक्षत्वं नैवं संयोगविभागारम्भे नोदनाद्यपेक्षत्वमित्यर्थः । असमवायिकारणत्वम्, यथा गुणानां निमित्तकारणत्वमपि नैवं कर्मणाम्, किं त्वसमवायिकारणत्वमेवेत्यर्थः । स्वपराश्रयेति । स्वाश्रये पराश्रये च व्यासज्य समवेतं यत् कार्यं संयोगविभागलक्षणं For Private And Personal दूसरी क्रिया की कल्पना व्यर्थ होगी । एक ही कर्म अनेक आश्रयों में भी नहीं रहता है, क्योंकि जिस क्रिया से आश्रयीभूत एक द्रव्य का चालन होता है, उसी क्रिया से दूसरे द्रव्य का चालन कहीं नहीं देखा जाता । उत्पत्ति के बाद अतिशीघ्र विनष्ट होना ही 'क्षणिकत्व' है। किसी अल्पपरिमाणवाले द्रव्य में रहना ही 'मूर्त्तद्रव्यवृत्तित्व' हैं। गुणवत्व का अभाव ( फलतः गुणों का न रहना ही ) 'अगुणवत्त्व' है । यह गुरुत्व, द्रवश्व प्रयत्न और संयोग इनमें से किसी से उत्पन्न होता है । 'स्वकार्येति' यह संयोग रूप अपने कार्य से ही विनष्ट होता है, विभाग रूप अपने कार्य से नहीं । यदि ऐसा मानेंगे तो क्रियाश्रय द्रव्य का उत्तरदेश के साथ संयोग न हो सकेगा । 'संयोगविभागेति' अर्थात् क्रिया को वेग के उत्पादन में जिस प्रकार विशेष प्रकार के नोदनसंयोग या अभिघात संयोग की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार संयोग और विभाग के उत्पादन में उसे नोदनादि किसी और वस्तु की अपेक्षा नहीं होती है । 'असमवायिकारणत्वम्' अर्थात् गुण असमवायिकारण होने के साथ-साथ निमित्तकारण भी हो सकता है, क्रिया में यह बात नहीं है, वह केवल असमवाविकारण ही होती है । 'स्वपराश्रयेति' क्रिया अपने आश्रयीभूत द्रव्य और उससे भिन्न द्रव्य में समवायसम्बन्ध से रहनेवाले एक ही
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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