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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकरणम् ] www.kobatirth.org भाषानुवादसहितम् प्रशस्तपादभाष्यम् Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६६६ तत्रोत्क्षेपणं शरीरावयवेषु तत्सम्बद्धेषु च यदूर्ध्वमाग्भिः संयोगकारणमघोभाग्भिश्च प्रदेशैर्विभागकारणं कर्मोत्पद्यते गुरुत्व प्रयत्न संयोगेभ्यस्तदुत्क्षेपणम् । प्रदेशैः इनमें उत्क्षेपण ( कहते हैं, जो कर्म ) शरीर के अवयव एवं उनसे संयुक्त और द्रव्यों का ऊपर के देश के साथ संयोग का कारण हो, एवं नीचे के प्रदेशों के साथ उन्हीं के विभाग का भी कारण हो, एवं गुरुत्व, प्रयत्न और संयोग से उत्पन्न हो, उसी कर्म को 'उत्क्षेपण' कहते हैं । न्यायकन्दली तदारम्भकत्वम् । समानेति । कर्मणः कर्मान्तरारम्भे गच्छतो गतिविनाशो न स्यात् । इच्छाप्रयत्नादिविरामादन्ते गतिविराम इति चेत् ? तच्छाप्रयत्नादिकमेवोत्तरोत्तरकर्मणामपि कारणम्, न तु कर्म । विवादाध्यासितं कर्म कर्मकारणं न भवति, कर्मत्वात् अन्त्यकर्मवत् । अथवा विवादाध्यासितं कर्म कर्मसाध्यं न भवति, कर्मत्वादाद्यकर्मवत् । द्रव्येति । उत्तरसंयोगान्निवृत्ते कर्मणि द्रव्यस्योत्पादनम् । प्रतिनियतेति । उत्क्षेपणादिषु प्रत्येकमुत्क्षेपणत्वादियोग इत्यर्थः । एतत् सर्वमपि पञ्चानां साधर्म्यम् । दिग्विशिष्टकार्यकर्त्ता त्वमेव कथयति -- तत्रेति । For Private And Personal कार्य अर्थात् व्यासज्यवृत्ति संयोग और विभाग रूप कार्य का कारण है । 'समानेति' अर्थात् क्रिया यदि दूसरी क्रिया को उत्पन्न करे, तो फिर एक बार जो चल पड़ेगा वह बराबर चलता ही जाएगा, उसकी क्रिया कभी रुकेगी ही नहीं। क्योंकि उसकी गति का कभी विनाश नहीं होगा । ( प्र० ) चलने की इच्छा या तदनुकूल प्रयत्न इन सबों के विराम से गति का विराम होगा ? ( उ० ) तो फिर वह इच्छा या प्रयत्न ही उस दूसरी क्रिया का भी कारण होगा, कर्म नहीं । तदनुकूल यह अनुमान भी है कि जैसे अन्तिम क्रिया किसी भी क्रिया का कारण नहीं होती है, उसी प्रकार कोई भी क्रिया केवल क्रिया । 'द्रव्येति' उत्तरदेश होने के नाते ही दूसरी क्रिया को उत्पन्न नहीं करती । अथवा यह भी सकता है कि जैसे क्रिया से पहिली क्रिया को उत्पत्ति नहीं होती है, केवल क्रिया होने से ही किसी क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकती है 'साथ संयोग के उत्पन्न होने पर जब क्रिया का नाश हो जाता है, तभी द्रव्य की उत्पत्ति होती है । 'प्रतिनियतेति' उत्क्षेपणादि प्रत्येक क्रिया में उत्क्षेपणत्वादि जाति का सम्बन्ध ( भी ) कर्म का साधर्म्य है । ये सभी पाँचों कर्मों के साधर्म्य हैं । 'दिग्विशिष्टेति । 'तत्रोत्क्षेपणम्' इत्यादि से दिग्विशिष्ट कार्यों के कर्त्तव्य का विवरण देते हैं । उत्क्षेपण अनुमान किया जा वैसे ही कोई क्रिया
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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