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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६६६ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणनिरूपणे शम्द प्रशस्तपादभाष्यम् ग्रहणम् । श्रोत्रशब्दयोगमनागमनाभावादप्राप्तस्य ग्रहणं नास्ति, परिशेषात् सन्तानसिद्धिरिति । इति प्रशस्तपादभाष्ये गुणपदार्थः समाप्तः । ( उक्त समूहों के द्वारा ) श्रोत्रप्रदेश में पहुँचने के बाद श्रोत्र के द्वारा उसका प्रत्यक्ष होता है। यतः श्रोत्रेन्द्रिय और शब्द इन दोनों में से कोई भी पतिशील नहीं है, और श्रोत्र से असम्बद्ध शब्द का प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है, अतः परिशेषानुमान से ( शब्दजनित ) शब्दसन्तान ( समूह ) की सिद्धि होती है। प्रशस्तपादभाष्य में गुणों का निरूपण समाप्त हुआ। न्यायकन्दली वायुप्रतिघातात् । अतीवायं मार्गस्ताकिकः क्षुण्णस्तेनास्माभिरिह भाष्यतात्पर्यमानं व्याख्यातम्, नापरा युक्तिरुक्ता। गुणोपबद्धसिद्धान्तो युक्तिशुक्तिप्रभावितः । मुक्ताहार इव स्वच्छो हृदि विन्यस्यतामयम् ।। इति भट्टश्रीश्रीधरकृतायां पदार्थप्रवेशन्यायकन्दलीटीकायां गुणपदार्थः __ समाप्तः । इत्यादि से किया गया है। अर्थात् न शब्द ही श्रोत प्रदेश में जा सकता है, और न श्रोत्र ही शब्द प्रदेश में आ सकता है, क्योंकि दोनों ही क्रिया से सर्वथा रहित हैं। यतः इन्द्रियाँ विषय के साथ सम्बद्ध होकर ही विषय को ग्रहण करती हैं ( यही इन्द्रियों का प्राप्यकारित्व है)। अतः शब्दसन्तान की कल्पना के बिना शब्द की उपलब्धि उपपन्न नहीं हो सकती। जल के तरङ्ग अपनी उत्पत्ति के प्रदेश में विनाशप्राप्त होने पर भी उससे अव्यवहित उत्तर प्रदेश में अपने सदृश हो दूसरे तरङ्गव्यक्ति को उत्पन्न करते हुए देखे जाते हैं। इसी दृष्टान्त के बल से शब्दसन्तान की कल्पना करते हैं। इसमें अनवस्था दोष भी नहीं है, क्योंकि शब्द के निमित्तकारण कोष्ठ सम्बन्धी वायु की अनुवृत्ति जितनी दूर तक रहेगी, उतनी ही दूर तक शब्दसन्तान की अनुवृत्ति की कल्पना करेंगे। यही कारण हैं कि प्रतिकूल वायु के रहने पर शब्द की उपलब्धि नहीं होती है, क्योंकि कोष्ठ सम्बन्धी वायु उससे प्रतिहत हो जाता है। इस मार्ग को ताकिकों ने अनेक प्रकार से रौंद डाला है, अतः हम लोगों ने भाष्य का तात्पर्य मात्र ही लिखा, कोई दूसरी युक्ति नहीं दिखलायी। मोती के माला की तरह (गुणनिरूपण रूप) यह स्वच्छ हार विद्वान् लोग हृदय में धारण करें। यह हार युक्ति स्वरूप शुक्तिका में उत्पन्न मोतियों से बना है, एवं सिद्धान्त सिद्धगुण (डोरी में) गुंथा हुआ है। भट्ट श्री श्रीधर के द्वारा रची गयी एवं पदार्थों को समझानेवाली न्यायकन्दली टोका का गुणपदार्थों का विवेचन समाप्त हुआ। For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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