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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम् ६९५ प्रशस्तपादभाष्यम् स चोर्ध्व गच्छन् कण्ठादीनभिहन्ति, ततः स्थानवायुसंयोगापेक्षमाणात् स्थानाकाशसंयोगात् वर्णोत्पत्तिः । __ अवर्णलक्षणोऽपि भेरीदण्डसंयोगापेक्षाद् मेर्याकाशसंयोगादुत्पद्यते । वेणुपर्व विभागाद् वेण्वाकाश विभागाच्च शब्दाच्च संयोगविभागनिष्पन्नाद् वीचीसन्तानवच्छब्दसन्तान इत्येवं सन्तानेन श्रोत्रप्रदेशमागतस्य यह सक्रिय वायु ऊपर की तरफ जाते समय कण्ठ में अभिघात को उत्पन्न करता है। इसके वाद ( कण्ठादि ) स्थान और वायु का संयोग, एवं ( कण्ठादि ) स्थान और आकाश के संयोग इन दोनों संयोगों से वर्णात्मक शब्द की उत्पत्ति होती है। भेरी (प्रभृति ) और दण्ड ( प्रभृति ) का संयोग एवं भेरी (प्रभृति ) और आकाश का संयोग, इन दोनों संयोगों से अवर्ण ( ध्वनि ) रूप शब्द की उत्पत्ति होती है। बाँस और उसकी सन्धि ( गाँठ ) के विभाग एवं बाँस और आकाश का विभाग इन दोनों विभागों से शब्द की उत्पत्ति होती है। संयोग और विभाग से निष्पन्न शब्द के तरङ्गों के समूह की तरह शब्द से भी शब्द के तरङ्गों के समूहों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार शब्द के न्यायकन्दली शब्दान्तरम्, ततोऽप्यनयोर्गमनागमनाभावात् प्राप्तस्यैवोपलब्धिरिति, ततोऽप्यन्यत्, ततोऽप्यन्यदित्यनेन क्रमेण शब्दसन्तानो भवति । एवं सन्तानेन श्रोत्रदेशे समागतस्यान्त्यशब्दस्य ग्रहणम्।। नन्वेषा कल्पना कुतः सिद्धयतीत्यत आह-श्रोत्रशब्दयोरिति । न धोत्रं शब्ददेशमुपगच्छति, नापि शब्दः श्रोत्रदेशम्, तयोनिष्क्रियत्वात् । अप्राप्तस्य ग्रहणं नास्ति, इन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वात् । प्रकारान्तरेण चोपलब्धिर्न घटते । दृष्टा च वीचीसन्ताने स्वोत्पत्तिदेशे विनश्यतामपि स्वप्रत्यासत्तिमपेक्ष्य तदव्यवहिते देशे सदृशकार्यारम्भपरम्परया देशान्तरप्राप्तिः, तेन शब्दसन्तानः कल्प्यते। न चानवस्था, यावदूरं निमित्तकारणभूतः कौष्ठ्यवायुरनुवर्तते, तावरं शब्दसन्तानानुवृत्तिः। अत एव प्रतिवातं शब्दानुपलम्भः, कौष्ठयविभाग से उत्पन्न ) शब्द के द्वारा उसके अति समीप के आकाश प्रदेश में दूसरे तत्सदृश शब्द की उत्पत्ति होती है। (यह इसलिए मानना पड़ता है कि ) श्रोत्र और शब्द दोनों ही ( यतः हव्य नहीं है ) अतः अन्यत्र नहीं जा सकते, एवं जब तक इन्द्रिय के साथ बिषय का सम्बन्ध नहीं होगा तब तक विषय का ग्रहण सम्भव नहीं है। अत: दूसरे शब्द से तीसरे शब्द की उत्पत्ति, तीसरे शब्द से चौथे शब्द की उत्पत्ति, इस प्रकार शब्दसन्तान ( समूह ) की उत्पत्ति होती है। इस सन्तान का अन्तिम शब्द श्रोत्र प्रदेश में जब उत्पन्न होता है, तब उस सन्तान के उसी अन्तिम शब्द का ग्रहण होता है । इस प्रकार के शब्दसन्तान की कल्पना क्यों आवश्यक होती है ? इसी प्रश्न का समाधान 'श्रोत्रशब्दयोः' For Private And Personal
SR No.020573
Book TitlePrashastapad Bhashyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhatt
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages869
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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